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________________ उपसंहार दर्शनज्ञानचारित्रपर्यायाणां य आश्रयः । दर्शनशानचारित्रत्रयमात्मैव स स्मृतः ॥१७॥ अर्थ- पनि, ज्ञान और बारिक पयिका जो आश्रय है वही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है । आत्मा ही इन तीनों रूप स्मरण किया गया है ।। १७ ।। दर्शनज्ञानचारित्रप्रदेशा ये प्ररूपिताः 1 दर्शनज्ञानचारित्रमयस्थात्मन एव ते ।।१८।। अर्थ-दर्शन, ज्ञान और चारित्रके जो प्रदेश वाहे गये हैं वे दर्शन, ज्ञान और चारिशरूप आत्माके ही प्रदेश हैं ।। १८ ।। दर्शनज्ञानचारित्रागुरुलध्वाह्वया गुणाः । दर्शनज्ञानचारित्रमयस्यात्मन एव ते ।।१९।। अर्थ-दर्शन, ज्ञान और चारित्रके जो अगुरुलघु नामक गुण हैं वे दर्शन, ज्ञान चारित्ररूप आत्माके ही गुण हैं ।। १९ ।। दर्शनज्ञानचारित्रध्रौव्योत्पादव्ययास्तु ते । दर्शनज्ञानचारित्रमयस्यात्मन एव ते ।।२०।। अर्थ-दर्शन, ज्ञान और चारित्रके जा ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय हैं वे दर्शन, ज्ञान और चारिशरूप आत्माके ही हैं ॥ २० ॥ पर्यायाधिक और निश्चयनयसे मोक्षमार्गका कथन शालिनीछन्दः स्यात्सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूपः पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः । एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः ___ स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्गः ॥२१॥ अर्थ-यार्थिक नयको अपेक्षा मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रस्प है और द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा सदा अद्वितीय रहनेवाला एक ज्ञानी आत्मा ही मोक्षमार्ग है ।। २१ ।।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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