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________________ स्वार्थसार अर्थ — आत्मा जिस रूपसे देखा जाता है, जाना जाता है और आचरण किया जाता है वही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है । आत्मा ही इन तीनों रूप है ॥ १० ॥ २१० यस्मै पश्यति जानाति स्वरूयाय चरत्ययि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः || ११|| अर्थ - आत्मा अपने जिस स्वरूपके लिये देखता है, जानता है और आचरण करता है वही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। आत्मा ही इन तीनों रूप है ॥ ११ ॥ यस्मात्पश्यति जानाति स्वं स्वरूपाच्चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैच तन्मयः ||१२|| अर्थ - आत्मा जिस स्वरूपसे अपने आपको देखता है, जानता है, और आचरण करता है वही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। आत्मा ही इन तीनों रूप है ॥ १२ ॥ यस्य पश्यति जानाति स्वरूपस्य चरत्यपि । दर्शनज्ञानचरित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ||१३|| अर्थ -- आत्मा अपने जिस स्वरूपका दर्शन करता है, ज्ञान करता है और आचरण करता है वही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। आत्मा ही इन तीनों रूप है ॥ १३ ॥ यस्मिन् पश्यति जानाति स्वस्वरूपे चरित्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ||१४|| अर्थ - आत्मा अपने जिस स्वरूप में श्रद्धा करता है, जानता है और आचरण करता है वही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। आत्मा ही इन तीनों रूप है ॥ १४ ॥ ये स्वभावाद् दृशिज्ञप्तिचर्या रूपक्रियात्मकाः । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ||१५|| अर्थ -- जो स्वभाव से दर्शन, ज्ञान और आचरणरूप क्रियासे तन्मय हैं वही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है । आत्मा ही इन तीनों रूप है ।। १५ ।। दर्शनज्ञानचारित्रगुणानां दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव य इदाश्रयः । स्मृतः ||१६|| स अर्थ - जो दर्शन, ज्ञान और चारित्रगुणों का आश्रय है वही दर्शन, ज्ञान और चारित्र है, उन तीनों रूप आत्मा ही माना गया है ।। १६ ।।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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