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________________ १७८ तस्वार्थसार भावार्थ-कवल चान्द्रायण आदि व्रतोंको अवौदर्य तप कहते हैं। इसमें मुनि एक दो तीन आदि ग्रासके क्रमसे आहारको घटाते हुए एक ग्रास तक ले जाते हैं ॥ २॥ उपवासतपका लक्षण मोक्षार्थं त्यज्यते यस्मिन्नाहारोऽपि चतुर्विधः । उपवासः स तद्भेदाः सन्ति षष्ठाण्टमादयः ॥१०॥ अर्थ-जिसमें मोक्ष के लिये चारों प्रकारके आहारका त्याग किया जाता है वह उपवास कहलाता है। उसके पष्ठ--वेला तथा अष्टम-तेला आदि भेद हैं ।। १० ।। रसपरित्याग तपका लक्षण रसत्यागो भवे लक्षीरेक्षुदधिसर्पिषाम् । एकद्वित्रीणि चत्वारि पजतस्तानि पञ्चधा ॥११॥ अर्थ-तैल, दूध, इक्षुरस ( गुड़ शक्कर आदि ), दही और धी इन पाँच प्रकारके रसोंमें एक दो तीन चार या पांचों रसोंका त्याग करनेवाले मुनिके रसपरित्याग नामका तप होता है ॥११॥ वृत्तिपरिसंख्यान तपका लक्षण एकवास्तुदशागारमानमुद्गादिगोचरः । सङ्कल्पः क्रियते यत्र धृत्तिसंख्या हि तत्तपः ॥१२॥ अर्थ-जिससे एक मकान, दश मकान आदि तक जाना अथवा पेयपदार्थ और मूंग आदि अन्नोंका संकल्प किया जाता है वह वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप है। भावार्थ-वृत्तिका अर्थ आहार होता है। आहारसे सम्बन्ध रखनेवाले नाना प्रकारके नियम जिसमें किये जाते हैं वह वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप है । इस तपमें जब मुनि आहारके लिये निकलते हैं तब नियम लेकर निकलते हैं कि आज मैं एक घर तक, दो घर तक, तीन घर तक अथवा दश घर तक जाऊँगा। इनमें आहार मिलेगा तो लूंगा, अन्यथा नहीं लूंगा । अथवा आज पेयपदार्थ हो तूंगा या मुंग आदि अन्नसे निर्मित आहार मिलेगा तो लगा, अन्यथा नहीं लूंगा ॥ १२॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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