SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठाधिकार १७७ अर्थ-अनुदीर्ण-उदयावली में अप्राप्त कर्मको तपकी शक्तिके द्वारा उदीर्ण कर्मोकी उदयावली में प्रविष्ट कराकर जिसमें वेदा जाता है वह अविपाकजा निर्जरा है। जिस प्रकार आम तथा कटल आदि फल उपाय द्वारा असमयमें ही पका लिये जाते हैं उसी प्रकार प्राणियोंके कर्म भी तपश्चरणरूप उपायके द्वारा असमयमें पका लिये जाते हैं-उदयावली में लाकर खिरा दिये जाते हैं ।। ४-५ ।। विपाकजा और अविपाकजा निर्जराके स्वामी अनुभृय क्रमात्कर्म विपाकप्राप्तमुज्झताम् । प्रथमास्त्येव सर्वेषां द्वितीया तु तपस्विनाम् ॥६॥ . अ---महली मिस क्रम-नाना उदलो पापा कर्मका फल भोगकर उसका त्याग करनेवाले समस्त जीवोंके नियमसे होती है परन्तु दुसरी निर्जरा तपस्वी-मुनियोंके ही होती है ।। ६ ।। सपके भेद तपस्तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्याभ्यन्तरमेदतः । प्रत्येकं पविधं तच्च सर्व द्वादशधा भवेत् ॥७॥ अर्थ-बाह्य और आभ्यन्तरने भेदसे तप दो प्रकारका कहा गया है। दोनों ही प्रकारके तप छह-छह प्रकारके हैं तथा सब मिलाकर तप बारह प्रकारका होता है॥७॥ बाह्य तपके छह भेद बाह्यं तनावमौदर्यमुपवासो रसोझनम् । वृत्तिसंख्या वपुःक्लेशो विविक्तशयनासनम् ।।८।। अर्थ-उनमें बाह्य तपके छह भेद निम्न प्रकार हैं-अवमौदर्य, उपवास, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विवित्तशय्यासन ॥ ८॥ अवमौदर्य तपका लक्षण सर्व तदवमौदर्यमाहारं यत्र हापयेत् । एकद्विन्यादिभिग्रासैराग्रासं समयान्मुनिः ॥९॥ अर्थ-वह सब अवौदर्य नामका तप है जिसमें मुनि समयका नियम लेकर एक दो तीन आदि ग्रासोंके द्वारा आहारको एक ग्रास तक घटा देते हैंकम कर देते हैं।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy