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________________ १७४ तत्वार्थसार दो कोश प्रमाण बिहार करते हैं। चातुर्मास के समय विहार करनेका नियम नहीं है । यह संयम छठवें और सातवें गुणस्थान में होता है ॥ ४७ ॥ सूक्ष्मसाम्परायसंयमका लक्षण कषायेषु प्रशान्तेषु प्रक्षीणेष्वखिलेषु वा । स्यात्सूक्ष्मसाम्परायाख्यं सूक्ष्मलोभवतो मुनेः ॥४८|| अर्थ--- --- समस्त कषायों के उपशान्त अथवा क्षीण हो जानेपर जिस मुनिके मात्र सूक्ष्म लोभका सद्भाव रह जाता है उसके सूक्ष्मसाम्पराय नामका संयम होता है । भावार्थ - उपशमश्रेणीवाले मुनिके नवम गुणस्थानके जब समस्त स्थूल कषायों का उपशम हो जाता है तथा क्षपकश्रेणीवालेके समस्त स्थूल कषायोंका क्षय हो चुकता है तब वह दशम गुणस्थान में प्रवेश करता है उस समय उसके संज्वलन सम्बन्धी सूक्ष्म लोभका ही उशेष म्ह जाता है। उसी उसके सूक्षमसाम्पराय नामका चारित्र प्रकट होता है। यह संयम सिर्फ दशम गुणस्थानमें ही होता है ।। ४८ ।। यथाख्यात चारित्रका स्वरूप क्षयाच्चारित्र मोहस्य कात्स्न्येनोपशमात्तथा | यथाख्यातमथाख्यातं चारित्रं पञ्चमं जिनैः ॥ ४९ ॥ अर्थ - - चारित्रमोहनीयकर्मके सम्पूर्णरूपसे क्षय अथवा उपशम हो जानेसे जो चारित्र प्रकट होता है उसे जिनेन्द्र भगवान ने यथाख्यात नामका पञ्चम चारित्र कहा है । भावार्थ - चारित्रमोहनीयके उपशमसे जो यथाख्यातचारित्र होता है वह औपशमिक यथाख्यात चारित्र कहलाता है । यह मात्र ग्यारहवें गुणस्थानमें होता है । और जो चारित्रमोहके क्षयसे होता है उसे क्षायिक यथाख्यात कहते हैं । यह बारहवें आदि गुणस्थानोंमें होता है ।। ४९ ।। 1 सम्यकुचारित्रसे संवर होता है सम्यक् चारित्रमित्येतद्यथास्वं चरतो यतेः । सर्वास्त्रनिरोधः स्यात्ततो भवति संवरः ||५०|| अर्थ — इस प्रकार इस सम्यक् चारित्रका जो मुनि यथायोग्य आचरण करता है उसके समस्त आस्रवोंका निरोध हो जाता है और आस्रवोंका निरोध होनेसे संबर होता है ॥ ५० ॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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