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________________ -१७२ स्वार्थसार अर्थ - लोकके मार्ग में भ्रमण करनेवाले नित्य पथिकस्वरूप इस जीवने वसतिकाओंके स्थानके समान कौन-कौन कुलोंमें निवास नहीं किया है । भावार्थ - जिस प्रकार निरन्तर भ्रमण करनेवाला पथिक विश्राम करने के लिये किन्हीं वसतिकाओं में ठहरता है उसी प्रकार संसारके मार्ग में निरन्तर भ्रमण करता हुआ यह जीव नाना कुलोंमें ठहरता है— जन्म लेता है ॥ ४० ॥ बोधिदुर्लभ भावना मोक्षारोहणनिश्रेणिः कल्याणानां परम्परा । अहो कष्टं भवाम्भोधौ बोधिर्जीवस्य दुर्लभा ॥ ४१ ॥ अर्थ - मोक्षरूपी महलपर चढ़ने के लिये नसैनी तथा कल्याणोंकी परम्परा स्वरूप रत्नत्रयको प्राप्ति इस जीवको संसाररूपी सागरमें बहुत दुर्लभ है । भावार्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको बोधि कहते हैं । यह बोधि मोक्षरूपी महलपर चढ़नेके लिये नसैनीके समान है तथा अनेक कल्याणों-सांसारिक सुखोंको प्राप्त करानेवाली है । अनादिकालसे संसाररूपी सागर में मज्जनोन्मज्जनको करनेवाले इस जीवको रत्नत्रयकी प्राप्ति बड़ी कठिनाई होती है ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभभावना है ॥ ४१ ॥ धर्मस्वाख्यातत्त्वभावना क्षान्त्यादिलक्षणो धर्मः स्वाख्यातो जिनपुङ्गवैः । अयमालम्बनस्तम्भो भवाम्भोधौ निमज्जताम् ॥४२॥ अर्थ — जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा सम्यक् प्रकारसे कहा हुआ यह क्षमादि लक्षणवाला धर्म संसाररूपी समुद्रमें डूबते हुए प्राणियोंके लिये आधारस्तम्भके समान है ॥ ४२ ॥ अनुप्रेक्षा से संवरको सिद्धि साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यमः । एवं भावयतः ततो हि निःप्रमादस्य महान् भवति संवरः ॥४३॥ अर्थ - इस प्रकारकी भावना करनेवाले सानुका धर्ममें महान पुरुषार्थं प्रकट होता है और उससे प्रमादरहित साधुके बहुत भारी संवर होता है ।। ४३ । पाँच प्रकारका चरित्र वृत्तं सामायिकं ज्ञेयं छेदोपस्थापनं तथा । परिहारं च सूक्ष्मं च यथाख्यातं च पश्चमम् ॥४४॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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