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________________ অদ্ভাধিকাং अर्थ-यद्यपि सचेतन जीव जुदा है और अचेतन शरीर जुदा है तथापि दुःखको बात है कि मनुष्य इन दोनोंकी जुदाईको नहीं मानते हैं ।। ३५ ॥ अशुचित्वभावना नानाकृमिशताकीर्णे दुर्गन्धे मलपूरिते । आत्मनश्च परेषां च क्व शुचित्वं शरीरके ।।३६।। अर्थ-नाना प्रकारके सैकड़ों की डोंसे व्याप्त, दुर्गन्धित तथा मलसे भरे हुए अपने और दूसरोंके शरीरमें पवित्रता कहाँ है ? ।। ३६ ॥ आस्त्रवभावना कर्माम्भोभिः प्रपूर्णोऽसौ योगरन्ध्रसमाहतैः । हा दुरन्ते भवाम्भोधौ जीयो मज्जति पोतवत् ॥३७|| अर्थ-बड़े खेदकी बात है कि योगरूपी छिद्रोंसे आये हुए कर्मरूप जलसे भरा हुआ यह जीव जहाजकी तरह संसाररूपी दुःखदायक समुद्र में डूब रहा है ॥ ३७॥ __ संघरभावना योगद्वाराणि रुन्धन्तः कपाटरिव गुप्तिभिः । आपतद्रि ने बाध्यन्ते धन्याः कर्मभिरुत्कटः ॥३८॥ अर्थ-किवाड़ोंके समान गुप्तियोंके द्वारा योगरूपी द्वारोंको चन्द करनेवाले भाग्यशाली जोव चारों ओरसे आनेवाले भयंकर कोंके द्वारा बाधित नहीं होते ।। ३८ ॥ निर्जराभावना माढोऽपजीर्यते यद्वदामदोषो विसर्पणात् । तद्वनिर्जीयते कर्म तपसा पूर्वसञ्चितम् ॥३९॥ अर्थ-जिस प्रकार विरेचक औषधिसे बहुत भारी अजीर्णका दोष नष्ट हो जाता है उसीप्रकार तपके द्वारा पूर्वसंचित कर्म नष्ट हो जाता है ।। ३९ ॥ लोकभावना नित्याध्वगेन जीवेन भ्रमता लोकवत्मनि । यसतिस्थानवत् कानि कुलान्यध्युषितानि न ॥४०॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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