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________________ १७० तत्वार्थसार लोको दुर्लभता वोधः स्वाख्यातच्चं वृषस्य च | अनुचिन्तनमेतेषामनुप्रेक्षा: प्रकीर्तिताः ||३०| अर्थ ----अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव संवर, निर्जरा, लोक, और उनका बारबार निम्तन करना बारह अनुप्रेक्षाएँ कही गई हैं ||२१-३०।। अनित्यभावनाका लक्षण कोडीकरोति प्रथमं जातजन्तुभनित्यता । धात्री च जननी पश्चाद् धिग्मानुष्यमसारकम् ॥ ३१ ॥ अर्थ - उत्पन्न हुए जीवको सबसे पहले अनित्यता ही अपनी गोद में लेती है पृथिवी और माता पीछे 1 सार रहित मनुष्यपर्यायको चित्रकार हो ||३१| अशरणभावना उपघातस्य धीरेण मृत्युव्याघ्रेण देहिनः । देवा अपि न जायन्ते शरणं किमु मानवाः ||३२|| अर्थ - मृत्युरूपी भयंकर व्यात्र के द्वारा सूंघे हुए इस जीवको देव भी शरण नहीं हैं फिर मनुष्यों को तो बात ही क्या है ॥ ३२ ॥ संसारभावना घटीमिव । चतुर्गतिघटीयन्त्रे सन्निवेश्य आत्मानं भ्रमत्ये हा कष्टं कर्मकच्छिकः ||३३|| अर्थ-बड़े दुःखकी बात है कि यह कर्मरूपी काछो इस जीवको चतुर्गतिरूपी हमें घरिया के समान लगाकर घुमाता रहता है ॥ ३३ ॥ एकत्व भावना कस्यापत्यं पिता कस्य कस्याम्वा कस्य गेहिनी । एक एव भवाम्भोधौ जीवो भ्रमति दुस्तरे || ३४॥ अर्थ - किसका पुत्र, किसका पिता, किसकी माता और किसकी स्त्री। इस दुस्तर संसारसागर में यह जीव अकेला ही घूमता है || ३४ || अन्यस्वभावना अन्यः सचेतनो जीवो वपुरन्यदचेतनम् | हा तथापि न मन्यन्ते नानात्वमनयोर्जनाः ||३५||
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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