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________________ षष्ठाधिकार याचना और असत्कार पुरस्कार ये सात परिपह चारित्रमोहनीयकमके उदयमें होते हैं तथा शेष परिषह वेदनीयकर्मके उदयमें होते हैं। सूक्ष्मसाम्पराय नामक दशम गुणस्थान और हम बोतरा ना ह यारह रहये गुण में क्षुधा, तृषा, शीत,उष्ण, दंशमत्कुण, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणसंस्पर्श, मलधारण, प्रज्ञा और अज्ञान ये चौदह परिषह होते हैं तथा जिनेन्द्र भगवान्के क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमत्कुण, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मलघारण ये ग्यारह परिषह होते हैं। तथा छठवेसे नवम गुणस्थान तक सभी परिषह होते हैं । यहाँ जिनेन्द्र भगवान्के जो ग्यारह परिषह कहे गये हैं बे उन परिषहोंके मूल कारण वेदनीयकर्मका उदय रहने मानसे कहे गये हैं। कार्यरूपमें उनकी परिणति नहीं होती। जिनेन्द्र भगवान्के मोहनीयकर्मका सर्वथा अभाव हो जाता है इसलिये उन्हें वेदनीयके उदयमें होनेवाले दुःखका लेशमात्र भी अनुभव नहीं होता। उनका असातावेदनीय सातावेदनीयरूप होकर निजीर्ण होता है ।। २३-२५ ।। परिषहजय संवरका कारण है संवरो हि भवत्येतानसंक्लिष्टेन चेतसा । सहमानस्य रागादिनिमित्तानवरोधतः ॥२६॥ अर्थ-इन परिषहोंको संक्लेश रहित चित्तसे सहन करनेवाले मुनिके रागादिके निमित्तसे होने वाला आस्रव रुक जाता है इसलिये संवर होता है ।। २६॥ __तप संवर और निर्जरा वोनोंका कारण है तपो हि निर्जराहेतुरुत्तरत्र प्रचक्ष्यते । संवरस्यापि विद्वांसो विदुस्तन्मुख्यकारणम् ।।२७।। अनेककार्यकारित्वं न चैकस्य विरुध्यते । दाहपाकादिहेतुत्वं दृश्यते हि विभावसोः ।।२८।। अर्थ-तप निर्जराका कारण है ऐमा आगे कहा जावेगा । परन्तु विद्वान् लोग उसे संवरका भी मुख्य कारण जानते हैं। एक ही वस्तु अनेक कार्योंको करनेवाली हो, इसमें विरोध नहीं है क्योंकि एक ही अग्नि गर्मी तथा भोलन पाना आदि कार्योंका कारण देखी जाती है ।।२७-२८।। बारह अनुप्रेक्षाओं के नाम । अनित्यं शरणाभावो भवरचैकत्वमन्यता । अशौचमानवश्चैव संवरो निर्जरा तथा ॥२९॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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