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________________ चतुर्थाधिकार अतिथि संविभागात के अतिचार कालव्यतिक्रमोऽन्यस्य व्यपदेशोऽथ मत्सरः । सचित्ते स्थापनं तेन पिधानं चेति पञ्च ते ॥ ९७ ॥ अर्थ -- कालव्यतिक्रम --- दान देने योग्य समयका उलङ्घनकर विलम्बसे दान देना, अन्यथ्यपदेश - दूसरे दात्ताके द्वारा देने योग्य बस्तुका देना अथवा प्रमादवश स्वयं आहारादि न देकर दूसरेसे दिलाना, मत्सर - दूसरे दातारों के यहाँ आहार हो जानेपर ईर्ष्याभाव करना, सचित्तस्थापन- हरे पत्ते आदिसे निर्मित पात्र में रखा हुआ पदार्थ देना और सचित्तविधान – हरे पत्ते आदि सचित्त वस्तुओंसे ढके हुए आहारका देना ये पाँच अतिथिसंविभागव्रत के अतिचार हें ॥ ९७ ॥ सल्लेखनाके पाँच अतिर पञ्चत्वजीविताशंसे तथा मित्रानुरञ्जनम् । सुखानुबन्धनं चैव निदानं चेति पञ्च ते ॥ ९८ ॥ अर्थ--पञ्चताशंसा---क्रष्ट अधिक होनेपर जल्दी मरनेकी इच्छा रखना, जीविताशंसा --- जीवित होनेकी इच्छा करना, मित्रानुरज्जन--- मित्रोंसे राग करना, सुखानुबन्ध --- पहले भोगे हुए सुखका स्मरण करना और निदानआगामी भोगोंकी इच्छा करना ये पाँच सल्लेखना के अतिचार है ॥ ९८ ॥ १८ बानका लक्षण परात्मनोरनुग्राहिधर्मवृद्धिकरत्वतः । स्वस्योत्सर्जन मिच्छन्ति दानं नाम गृहिव्रतम् ॥ ९९ ॥ १३७ अर्थ --- निज और परका उपकार करनेवाले धर्मकी वृद्धिका कारण होनेसे आत्मीय वस्तुका देना दान है, यह दान गृहस्थका व्रत है ॥ ९९ ॥ दान में विशेषताके कारण विधिद्रव्यविशेषाभ्यां ज्ञेयो दानविशेषस्तु अर्थ - विधि, द्रव्य, दाता और पात्रको विशेषतासे दान में विशेषता जानना चाहिये । दानकी विशेषता विशिष्ट पुण्यास्रवको करनेवाली है ॥ १०० ॥ दातृ पात्र विशेषतः । पुण्यास्रवविशेषकृत् ॥ १०० ॥ पुण्यावका कारण हिंसानृतचुराब्रह्मसङ्गसंन्यासलक्षणम् । व्रतं पुण्यासवोत्थानं भावेनेति प्रपश्चितम् ॥ १०१ ॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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