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________________ १३८ तत्वार्थसार अर्थ--हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रहका त्याग करना जिसका लक्षण है ऐसे प्रतको भावपूर्वक धारण करना पुण्यास्त्रबको बढ़ानेवाला है ।। १०१॥ पापासबका कारण हिंसानृतचुराब्रह्मसङ्गासन्यासलक्षणम् । चिन्त्यं पापासवोत्थानं भावेन स्वयमव्रतम् ॥१०२॥ अर्थ--हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रहका त्याग नहीं करना जिसका लक्षण है ऐसा अव्रत अपने भावसे स्वयं पापास्रवको बढ़ानेवाला है। भावार्थ-पाँच पापोंका त्याग करना नत है और पांच पापोंका त्याग नहीं करना अव्रत है। वससे पुण्यकर्मोका आस्रव होता है और अग्रतसे पापकर्मीका आस्रव वृद्धिको प्राप्त होता है ।। १०२ ॥ पुण्य-पापको विशेषता हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्ययापयोः । हेतू शुभाशुभी भावौ कायें चैव सुखासुखे ॥१३॥ अर्थ--हेतु और कार्यकी विशेषतासे पुण्य और पापको विशेषता होती है। शुभ-अशुभभाव पुण्य-पापके हेतु हैं और सुख तथा दुःख पुण्य-पापके कार्य हैं ।। १०३॥ पुण्य और पापको समानता संसारकारणत्वस्य द्वयोरप्यविशेषतः । न नाम निश्चयेनास्ति विशेषः पुण्यपापयोः ॥१०४॥ अर्थ-पुण्य और पाप दोनों ही समानरूपसे संसारके कारण हैं इसलिये निश्चयनयसे उनमें विशेषता नहीं है । भावार्थ-जिस प्रकार सुवर्ण और लोहेको बेड़ी समान रूपसे बन्धनका कारण है उसी प्रकार पुण्य और पाप दोनों ही संसारके कारण हैं इसलिये निश्चयनयसे इन दोनों में विशेषता नहीं है, दोनों हेय हैं । परन्तु व्यवहारमें पुण्य स्वर्गादिके सुखका कारण है और पाप नरकादिके दुःखका कारण है । जब तक मोक्ष प्रास होनेका अवसर नहीं आया है तब तक इतके द्वारा स्वर्गादिकका प्राप्त करना अच्छा है परन्तु अव्रतके द्वारा नरकादिका प्राप्त करना अच्छा नहीं है।' १. वरं व्रतः पदं देवं नावतर्वत नारकम् । छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान् ॥३॥ इटोपदेशे पूज्यपादस्य ।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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