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________________ चतुर्थाधिकार भावार्थ—मनुष्यके पास जितना परिग्रह है वह स्पर्शनादि पांच इन्द्रियोंके विषयोंमें ही गभित है। जिन पदार्थोंको मनुष्य इष्ट मानता है उनका संग्रह करता है और जिन्हें अनिष्ट मानता है उन्हें दूर करता है । अपरिग्रह या परिग्रह त्यागयतकी रक्षाके लिये यह आवश्यक है कि किसी वस्तुको इष्ट और अनिष्ट म माना जाय । जब इट औ: अनिकी बुद्धि का जावेगी तब रागद्वेषकी उत्पत्ति स्वयं दूर हो जायेगी और रागद्वेषकी उत्पत्तिके दूर हो जानेपर परिग्रह रखनेका भाव ही नहीं रहेगा क्योंकि रागद्वेष ही तो परिग्रहके रक्षक हैं ।। ६८।। हिंसादि पापोंके विषयमें कैसा विचार करना चाहिये ? इह व्यपायहेतुत्वममुत्रावद्य हेतुताम् ॥६९।। हिंसादिषु विपक्षेषु भावयेञ्च समन्ततः । स्वयं दुःखस्वरूपत्वादुःखहेतुत्वतोऽपि च ||७०॥ हेतुत्वाद्दुःखहेतूनामिति तत्त्वपरायणः । हिंसादीन्यथया नित्यं दुःखमेवेति भावयेत् ।।७१॥ अर्थ-हिंसादि पापोंक विषयमें ऐसा विचार करना चाहिये कि ये इस लोकमें अनेक प्रकारके दुःखोंके कारण हैं तथा परलोकमें पापबन्धके हेतु है । अथवा ऐसा विचार करे कि ये हिंसादिक स्वयं दुःखरूप हैं, दुःखोंके कारण हैं, और दुःखोंके कारणोंके कारण हैं इसलिये दुःख ही हैं ॥ ६९-७१ ।। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यभावना सत्वेषु भावयेन्मैत्री मुदितां गुणशालिषु । क्लिश्यमानेषु करुणामुपेक्षा वामदृष्टिषु ।।७२।। अर्थ संसारके समस्त प्राणियोंमें मैत्री भावना, गुणी मनुष्यों में प्रमोदभावना, दुःखी जीवोंमें करुणाभावना और विपरीत मनुष्यों में माध्यस्थ्यभावनाका चिन्तन करना चाहिये ॥ ७२ ।। संसार और शारीरके स्वभावका विचार संवेगसिद्धये लोकस्वभावं सुष्ठ भावयेत् । वैराग्याथं शरीरस्य स्वभावं चापि चिन्तयेत् ।।७३।। अर्थ---संवेग-संसारसे भोरताकी सिद्धिके लिए अच्छी तरह संसारके स्वरूपकी भावना करना चाहिये और वैराग्यके लिये शरीरके स्वभावका विचार करना चाहिये ॥ ७३ 11
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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