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चतुर्थाधिकार
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जीवघात करना, निरन्तर झूठ बोलना, सदा परवन हरण करना, निरन्तर मैथुन सेवन करना, हमेशा कामभोग सम्बन्धी अभिलाषाओं को अत्यधिक बढ़ाना, जिनेन्द्रभगवान् में दोष लगाना, जिनागमका खण्डन करना, बिलाव, मुर्गा आदि पापी जीवों का पोषण करना, शील रहित होना, बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह रखना, कृष्णलेश्यारूप परिणति करना तथा चार प्रकारका हिंसानन्द, मृषानन्द, स्तेयानन्द, परिग्रहानन्द ) रौद्रध्यान करना ये सब नरकायुके आस्रवके हेतु हैं ।। ३०-३४ ।।
तियंआयुके आलवके कारण
नैः शील्यं निर्व्रतत्वं च मिध्यात्वं परवचनम् । मिथ्यात्व समवेतानामधर्माणां
देशनम् ||३५||
तथा ।
कृत्रिमागुरुकर्पूरकुङ्कुमोत्पादनं तथा भानतुलादीनां कूटादीनां प्रवर्तनम् ||३६|| सुवर्ण मौक्तिकादीनां प्रतिरूपकनिर्मितिः । वर्णगन्धरसादीनामन्यथापादनं तथा ||३७|| तक्रक्षीरघृतादीनामन्यद्रव्यविमिश्रणम् । वाचान्यदुत्काकरणमन्यस्य क्रियया तथा ||३८|| कापोतनीललेश्यात्वमार्त्तध्यानं च दारुणम् । तैर्यग्योनायुषो ज्ञेया माया चात्रवहेतवः || ३९ ।।
अर्थ - शीलरहित होना, व्रतरहित होना, मिथ्यात्व धारण करना, दूसरोंको ठगना, मिध्यात्वसे सहित अधर्मो का उपदेश देना, कृत्रिम अगुरु, कपूर और केशरका बनाना, झूठे नापतौलके बाँट तराजू तथा कूट आदिका चलाना, नकली सुवर्ण तथा मोती आदिका बनाना, वर्ण, गन्ध रस आदिको बदलकर अन्यरूप देना, छाँच, दूध तथा घी आदिमें अन्य पदार्थोका मिलाना, वाणी तथा क्रिया द्वारा दूसरोंकी विपयाभिलाषाको उत्पन्न करना, कापोत और लेश्यासे युक्त होना, तीव्र आर्तध्यान करना और मायाचार करना ये सब तिर्यञ्च आयुके आस्रवके हेतु जानना चाहिये || ३५-३९ ।।
मनुष्य आयुके आवके कारण
ऋजुत्वमीपदारम्भपरिग्रहतया स्वभाव मार्दवं
चैव
सद | गुरुपूजनशीलता ॥४०॥