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________________ तत्त्वार्थसार भावार्थ-अविद्यमान दोषोंका कहना अवर्णवाद है। केवली कवलाहार करते हैं इत्यादि कहना केवलीका अवर्णवाद है। शास्त्रोंमें मांस खाना लिखा है इत्यादि कहना श्रुतका अवर्णवाद है । ये नग्न हैं, म्लेच्छ हैं, आदि शब्दोंद्वारा ऋषि, अति, मुनि और अनगार इन चार प्रकारके मुनिसमूहकी निन्दा करना संघका अवर्णवाद है । जैनधर्ममें कुछ नहीं हैं, इसके धारण करनेवाले नास्तिक हैं तथा मरकर असुर होते हैं इत्यादि कहना धर्मका अवणंवाद है । देव मांस खाते हैं, सुरा पीते हैं, बलिदानसे प्रसन्न होते हैं आदि काहना देवोंका अवर्णवाद है। तीर्थकरोंके अकल्पित दोषोंका कहना तीर्थंकरोंका अवर्णवाद है ।। २७-२८॥ चारित्रमोहनीय कर्मके आस्रवके हेतु स्यात्तीत्रपरिणामो यः कषायाणां वियाकतः । चारित्र मोहनीयस्य स एवावकारणम् ॥२९॥ अर्थ-कषायोंके उदयसे जो तीब परिणाम होता है वही चारित्रमोहनीय कर्मक आस्रवका कारण है। भावार्थ-क्रोधादि कारणोंके तीन सदसमें से हिला आदि पाने प्रवृत्ति होती हैं उससे चारित्रमोहनीय कर्मका आस्रव होता है ।। २९ ।। नरकायुके आनधके कारण उत्कृष्टमानता शैलराजीसदशरोषता ! मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकम्पता ॥३०॥ अजस्त्रं जीवघातित्वं सततानृतवादिता । परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् ॥३१॥ कामभोगाभिलाषा नित्यं चातिप्रवृद्धता । जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च भेदनम् ॥३२॥ मार्जारताम्रचूडादिपापीयःप्राणिपोषणम् । नैःशीन्यं च महारम्भयरिग्रहतया सह ।।३३।। कृष्णलेश्यापरिणतं रौद्रध्यानं चतुर्विधम् । आयुषो नारकस्येति भवन्त्यास्रबहेतवः ॥३४॥ अर्थ-तीन मान करना, पाषाणरेखाके समान तीव्र क्रोध करना, मिथ्यात्वधारण करना, तीव्र लोभ करना, निरन्तर निर्दयताके भाव रखना, सदा
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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