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________________ तत्वार्थसार अल्पसंक्लेशता दानं विरतिः प्राणिनः । आयुषो मानुषस्येति भवन्त्या स्रवहेतवः ॥ ४१॥ अर्थ - अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रहके साथ परिणामोंमें सरलता रखना, स्वभावसे कोमल होना, गुरुपूजनका स्वभाव होना, अल्प संक्लेशका होना, दान देना और प्राणिघात से दूर रहना ये सब मनुष्यायुके आसवके कारण हैं ।। ४०-४१ ।। १२० देवायुके आत्र व हेतु मन्दकषायता | तथायतनसेवनम् ॥४२॥ अकामनिर्जरा बालतपो सुधमंश्रवणं दानं सरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः । इति देवायुषो ह्येते भवन्त्यास्रवहेतवः || ४३ ॥ अर्थ — अकामनिर्जरा, बालतप, मन्दकषायता, समीचीन धर्मका सुनना, दान देना, देव गुरुधर्म तथा इनके सेवक इन छह आयतनोंकी सेवा करना, सरागसंयम, सम्यक्त्व और देशसंयम ये सब देवायुके आसव के कारण हैं । भावार्थ --- यहाँ सरागसंयम, सम्यक्त्व और देशसंयमको जो देवायुका आसव बतलाया है उसका अभिप्राय उनके कालमें पाये जानेवाले रामसे है, क्योंकि संयम या सम्यक्त्व बन्धके कारण नहीं हैं। उनके कालमें पाया जानेवाला रागांश ही बन्धका कारण है ।। ४२-४३ । अशुभ नामकर्मके आलवके हेतु मनोवाक्कायवक्रत्वं विसंवादनशीलता । मिथ्यात्वं कूटसाक्षित्वं पिशुनास्थिरचित्तता ||४४|| विषक्रियेष्टका पाकदावाग्नीनां प्रतिमायतनोद्यानप्रतिश्रयविनाशनम् प्रवर्तनम् । ॥४५॥ चैत्यस्य च तथा गन्धमान्यधूपादिमोषणम् । अतितोत्रकषायत्वं परुपासावादित्वं सौभाग्यकारणं तथा । अशुभस्येति निर्दिष्टा नाम्न आस्रवहेतवः ॥४७॥ अर्थ- मन, वचन, कायकी कुटिलता, विसंवाद करनेका स्वभाव, मिथ्यात्व, पापकर्मोपजीवनम् ॥४६॥ .
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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