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चतुर्थाधिकार
११५ आसादनोपघातौ च ज्ञानस्योत्सूत्रचोदितौ ॥१३॥ अनादरार्थश्रवणमालस्यं शास्त्रविक्रयः । बहुश्रुताभिमानेन तथा मिथ्योपदेशनम् ॥१४॥ अकालाधीतिराचार्योपाध्यायप्रत्यनीकता। श्रद्धाभावोऽप्यनम्यासस्तथा तीर्थोपरोधनम् ॥१५|| बहुश्रुतावमानश्च ज्ञानाधीतेश्च शाठयता ।
इत्येते ज्ञानरोधस्य भवन्त्यास्त्रबहेतवः ॥१६॥ अर्थ-मात्सर्य, अन्तराय, प्रदोष, निह्नव, ज्ञानका आसादन, उपघात, आगमविरुद्ध बोलना, अनादरपूर्वक अर्थका मुनना, आलस्य, शास्त्र वेचना, अपनेको बहुज्ञानी मानकर मिथ्या उपदेश देना, अकालमें अध्ययन करना, आचार्य और उपाध्यायके प्रतिकूल चलना, धर्मकी आम्नायमें रुकावट डालना, बहुजानी औका तिरस्कार करना और सामाध्ययनो कुशलतासे धूर्तताका का व्यवहार करना ये सब ज्ञानावरण कर्मके आस्रवके हेतु हैं।
भावार्थ:--मात्सर्य आदिके लक्षण इस प्रकार हैं
मात्सर्य—किसी कारणसे जिसका अभ्यास भी किया है तथा जो देनेके योग्य भी है ऐसे विज्ञानका ईर्ष्यावश दूसरेको न देना मात्सर्य है। __ अन्तराय-ज्ञानका विच्छेद करना अन्तराय है।
प्रदोष-मोक्षके साधनस्वरूप तत्त्वज्ञानका उपदेश होनेपर मुखसे विरोध न करनेपर भी अन्तरङ्गमैं उस ओर दुष्टताका भाव होना प्रदोष कहलाता है।
निलव-किसी कारणसे 'ऐसा नहीं है', 'मैं नहीं जानता हूं' ऐसा कहकर ज्ञानको छिपाना निलव है।
आसायन-दूसरेके द्वारा प्रकाशमें आनेवाले ज्ञानका शरीर और वचनसे निषेध करना आसादन है।
उपघात-निर्दोष शानमें दूषण लगाना उपघात है। शेष शब्दोंके अर्थ स्पष्ट हैं ।। १३-१६ ॥
दर्शनावरण कर्मके आस्त्रवके हेतु दर्शनस्थान्तरायश्च प्रदोषो नियोऽपि च । मात्सर्यमुपधातश्च तस्यैवासादनं तथा ॥१७॥ नयनोत्पाटनं दीर्घस्वापिता शयनं दिवा ।