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________________ ११६ तत्त्वार्थसार नास्तिक्यवासना सम्यग्दृष्टिसंदूषणम् तथा ॥ १८ ॥ कुतीर्थानां प्रशंसा च जुगुप्सा च तपस्विनाम् | दर्शना तहेतवः ॥१९॥ J अर्थ — दर्शनके विषय में अन्तराय, प्रदोष, निह्नव मात्सर्व, उपघात और आसादन करना, नेत्रोंका उखाड़ना, बहुत काल तक सोना, दिनमें सोना, नास्तिकताका भाव रखना, सम्यग्दृष्टि जीव में दूषण लगाना, कुगुरुओं की प्रशंसा करना और समीचीन तपस्वी- गुरुओं से ग्लानि करना दर्शनावरण कर्मके आस्रव हैं ।। १७-१९ ॥ असातावेदनीय कर्मके आस्रवके हेतु दुःखं शोको वधस्तापः क्रन्दनं परात्माद्वितयस्थानि तथा च परिदेवनम् । परपैशुनम् ॥ २० ॥ दमनं तथा । छेदनं भेदनं चैव ताडनं तर्जनं भर्त्सनं चैव सद्यो विशंसनं तथा ॥ २१॥ पापकर्मोपजीवित्वं वक्रशीलत्वमेव च । शस्त्रप्रदानं विश्रम्भघातनं विषमिश्रणम् || २२ ॥ शृङ्खलावागुरापाशरज्जुजालादिसर्जनम् । तथा ॥ २३ ॥ धर्मप्रव्यूह करणं शीलवत प्रच्यावनं तथा । भवन्त्या स्रवहेतवः ||२४|| धर्मविध्वंसनं तपस्विगर्हणं इत्य सदनीयस्य अर्थ - पराये अपने तथा दोनोंमें स्थित दुःख, शोक, वध, ताप, क्रन्दन और परिदेवन तथा दूसरेकी चुगली, छेदना, भेदना, ताड़ना, दमन करना, डाँटना, झिड़कना, शीघ्रता से ( अपराधका विचार किये बिना हो । घात करना, पापकासे जोविका करना, कुटिल स्वभाव रखना, शस्त्र देना, विश्वासघात करना, विष मिलाना, सांकल, जाल, पाश, रस्सी तथा जाल आदिका बनाना. धर्मका विध्वंस करना, धर्मके कार्यों में विघ्न करना, तबस्विजनोंको निन्दा करना और शीलव्रतसे च्युत करना ये सब असातावेदनीयके आस्रवके हेतु हैं । १. सद्यो विश्वसनं तथा इत्यपि पाठः ।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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