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________________ तत्त्वार्थसार अर्थ-उन तीवादिक भावोंमें अधिकरणके दो भेद है-(१) जीवाधिकरण और (२) अजीवाधिकरण । जीवाधिकरण आस्रब संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ ये तीन, मनोयोग, बचनयोग, काययोग ये तीन, कृत्त, कारित अनुमोदना ये तीन तथा क्रोधादि चार कषायके मेदसे एक सौ आठ प्रकारका है। और अजीवाधिकरण आस्रवके दो प्रयोग, नीन निसर्ग, जार निभेप और दो निर्वर्तना इस तरह ग्यारह भेद हैं। ___ भावार्थ-जीवाधित प्रवृत्तिकी विशेषतासे जो आस्रव होता है उसे जीवाधिकरण आस्रव कहते हैं। इसके एक सौ आठ भेद हैं, जो इस प्रकार सिद्ध होते हैं-संरम्भ-किसी कार्यके करनेका संकल्प करना, समारम्भ-कार्यके अनुकूल सामग्री जुटाना और आरम्भ-कार्य करने लगना ये तीन कार्य: मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग इन तीनोंसे होते हैं, इसलिये तीनमें तीनका गुणा करनेसे नौ भेद होते हैं। ये नौ कार्य; कृत-स्वयं करना, कारित-दुसरेसे कराना, अनुमोदन-किये हुएका समर्थन करना इन तीन कार्योंसे होते हैं, इसलिये नौमें तीनका गुणा करनेपर सत्ताईस भेद होते हैं। ये सत्ताईस भेद क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंसे होते हैं इसलिये सत्ताईसमें चारका गुणा करनेपर एक सौ आठ भेद होते हैं । अजीवाश्रित प्रवृत्तिसे आस्रवमें जो विशेषता होती है उसे अजीवाधिकरण आस्रव कहते हैं | इसके ग्यारह भेद हैं जो इस प्रकार हैं-संयोगके दो भेद हैं-[१] भक्तपानसंयोग-गर्म भोजनमें ढण्डा पानी आदि मिलाना, [२] उपकरण संयोग-धूपसे तपे हुए कमण्डलु आदिका शीतल पिछीसे परिमार्जन करना । निसर्गक तीन भेद हैं—[१] मनो निसर्ग-मनको विषयोंमें स्वच्छन्द प्रवर्ताना, [२] वचो निसर्ग–अप्रिय कटक आदि वचन बोलना [३] काय निसर्ग--ज्ञरीरकी प्रमादपूर्ण प्रवृत्ति करना । निक्षेपके चार भेद हैं-[१] अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकारण-विना देखो हुई भूमिपर किसी वस्तुको रखना, [२] दुःप्रमष्टनिक्षेपाधिकरण-दुष्टतापूर्ण विधिसे प्रभाजित भूमिमें किसी वस्तुको रखना, [३] सहसानिक्षेपाधिकरण--शीघ्रता पूर्वक किसी वस्तुको रखना और ]४] अनाभोगनिक्षेपाधिकरण-किसी वस्तुको उसके रखने योग्य स्थानपर न रखकर प्रमादवश इधर-उधर रखना । निवर्तनाके दो भेद हैं---[१] मूलगुणनिर्वर्तमा-शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छवासकी प्रमादपूर्ण प्रवृत्ति करना [२] उत्तरगुणनिर्वर्तना-लकड़ी तथा मिट्टी आदिके खिलौने तथा चित्र आदिकी रचना करना ॥ १०-१२ ॥ ___झानावरण कर्मके आस्रवके हेतु मात्सर्यमन्तरायश्च प्रदोषो निलवस्तथा ।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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