SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८३ द्वितीयाधिकार द्वीपेवर्धतृतीयेषु द्वयोश्चापि समुद्रयोः । निवासोऽत्र मनुष्याणामत एव नियम्यते ॥२११॥ अर्थ-जम्बूद्वीपमें क्षेत्र और कुलाचलोंकी जो संख्या कही गई है, धातकीखंड और पुष्कराधमें उससे दूनी संख्या निश्चित है अर्थात् इन दो खण्डोंमें चौदहचौदह क्षेत्र और बारह-बारह कुलाचल हैं । पुष्करद्वीपके मध्यमें चूड़ीके आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत सुना जाता है । उसके पहले पहले ही मनुष्योंका सद्भाव कहा है । इसीलिये अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रोंमें मनुष्योंका निवास नियमित किया जाता है ।। २०९-२११ ।। मनुष्योंके भेद आर्यम्लेच्छविभेदेन द्विविधास्ते तु मानुषाः । आर्यखण्डोद्भवा आर्या म्लेच्छाः केचिच्छकादयः ।। म्लेच्छखण्डोद्भवा म्लेच्छा अन्तरद्वीपजा अपि ॥२१२।। (षट्पदम् ) अर्थ-आर्य और म्लेच्छोंके भेदसे मनुष्य दो प्रकारके हैं। जो आर्यखण्डमें उत्पन्न हैं वे आर्य कहलाते हैं। आर्य खण्डमें उत्पन्न होनेवाले कितने ही शक, यवन, शबर आदि म्लेच्छ भी कहलाते हैं। म्लेच्छखण्डों तथा अन्तरद्वीपोंमें उत्पन्न हुए मनुष्य म्लेच्छ कहलाते हैं। भावार्थ-अड़तालीस लषण समुद्र में और अड़तालीस कालोदधि समुद्र में, दोनोंके मिलाकर छियानवे अन्तरद्वीप हैं। इनमें रहनेवाले म्लेच्छ अन्तरद्वीपज म्लेच्छ कहलाते हैं और म्लेच्छखण्डोंमें उत्पन्न होनेवाले म्लेच्छखण्डज म्लेच्छ कहलाते हैं । इस तरह म्लेच्छखण्डज और अन्तरद्वीपजके भेदसे म्लेच्छ दो प्रकार हैं। इन क्षेत्रोंके सिवाय आर्यस्खण्डमें रहनेवाले शक, यवन, शबर आदि भी म्लेच्छ कहे जाते हैं ।। २१२॥ देषलोकका वर्णन, वेवोंके चार निकाय भावनध्यन्तरज्योतिर्वैमानिकपिमेदतः । देवाश्चतुर्णिकायाः स्युर्नामकमेविशेषतः ॥२१३॥ अर्थ-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकके मेदसे देवोंके चार निकाय है। ये मेद नामकर्मकी विशेषतासे होते हैं ।। २१३ ॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy