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________________ ८२ नजाभार अवसर्पिणी भरत' और ऐरावत क्षेत्रको छोड़कर अन्यत्र किसी क्षेत्रमें नहीं होती हैं। भावार्थ-बीस कोडाकोड़ी सागरका एक कल्पकाल होता है। उसके उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीकी अपेक्षा दो भेद होते हैं। जिसमें मनुष्योंके बल, बुद्धि, आयु आदिकी वृद्धि होती है उसे उत्सर्पिणी पाहते हैं और जिसमें उक्त चीजोंकी हानि होती है उसे अवसर्पिणी कहते हैं | दोनोंके सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादुःषमा, दुःषमासुषमा, दुःषमा और दुःपमादुःषमा ये छह भेद होते हैं । ऊपर लिखा हा क्रम अवसर्पिणीका है | उपिणीका क्रम इसके विपरीत होता है। सुषमासुषमा ४ कोडाकोड़ी सागरका होता है। इसमें उत्तम भोगभूमिकी रचना होती है। सुषमा ३ कोडाकोड़ी सागरका होता है। इसमें मध्यम भोगभूमिको रचना होती है। सुषमादुःषमा २ कोडाकोड़ी सागरका होता है। इसमें जघन्य भोगभूमिको रचना होती है। पर जब पल्यका आठवां भाग बाकी रह जाता है तबसे कर्मभूमिकी रचना होती है। दुःषमासुषमा ब्यालोस हजार वर्ष कम एक कोडाकोड़ी सागरका होता है । इसमें कर्मभूमिकी रचना होती है । दुःषमा इक्कीस हजार वर्षका होता है । इसी प्रकार दुःपमादुःषमा भी इक्कीस हजार वर्षका होता है। इन दोनों कालोंमें भी कर्मभूमिकी रचना रहती है। इस तरह अवसर्पिणीके छह काल व्यतीत हो चुकनेपर उत्सपिणोके दुःषमादुःषमा आदि छह काल क्रमसे प्रवर्तते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रमें उत्सर्पिणी और अबसपिणीके छह कालोंका चक्र क्रमसे चलता रहता है। इन दो क्षेत्रोंको छोड़कर अन्य क्षेत्रोंमें कालचक्रका परिवर्तन नहीं होता। जहां जो काल होता है वही अनाद्यनन्त काल तक रहता है। जैसे हैमवत और हैरण्यवतमें सुषमादुःषमा नामका तीसरा काल, हरि और रम्यक क्षेत्रमें सुषमा नामका दूसरा काल और विदेहक्षेत्रमें दुःषमासुषमा नामका चौथा काल सदा रहता है। विदेह क्षेत्रके अन्तर्गत जो देवकुरु और उत्तरकुरु नामके प्रदेश हैं उनमें सुषमासुषमा नामका पहला काल सदा रहता है। भरत और ऐरावत क्षेत्रके पांच म्लेच्छ खण्डों तथा विजया पर्वतपर चौथे कालके आदि अन्तरूप परिवर्तन होता है, उनमें छह कालोंका परिवर्तन नहीं होता ।। २०८ ॥ पातकोखण्ड और पुष्करद्वीपका वर्णन जम्बुद्वीपोक्तसंख्याभ्यो वर्षा वर्षधरा अपि । द्विगुणा धातकोखण्डे पुष्कराद्धे च निश्चिताः॥२०१|| पुष्करद्वीपमध्यस्थो मानुषोत्तरपर्वतः । श्रूयते वलयाकारस्तस्य प्रागेव मानुषाः ॥२१०॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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