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________________ द्वितीयाधिकार वायुकायिक जीवोंके भेद महान् घनतनुश्चैव गुञ्जामण्डलिरुत्कलिः । वातश्चेत्यादयो ज्ञेया जीवाः पवनकायिकाः ॥६५॥॥ अर्थ-वृक्ष वगैरहको उखाड़ देनेवाली महान् वायु अर्थात् आँधी, घनवात, तनुवात, गुञ्जा—गूंजनेवाली वायु, मण्डलि-गोलाकार वायु, उत्कलितिरछी बहनेवाली वायु और वात--सामान्य वायु ये सब पवनकायिक जीव जानननेके योग्य हैं ॥६५॥ बनस्पतिकायिक जीवाफे भद मूलाग्रपर्वकन्दोत्थाः स्कन्धबीजरुहास्तथा । संमूच्छिनश्च हरिताः प्रत्येकानन्तकायिकाः ।।६६।। अर्थ-मूलबीज-मूलसे उत्पन्न होनेवाले अदरख, हल्दी आदि. अग्रबोजकलमसे उत्पन्न होनेवाले गुलाब आदि, पर्वबीज-पर्वसे उत्पन्न होनेवाले गन्ना आदि, कन्दबीज-कन्दसे उत्पन्न होनेवाले सूरण आदि, स्कन्धत्रीज-स्कन्धसे उत्पन्न होनेवाले ढाक आदि, बीजरूह-बीजसे उत्पन्न होनेवाले गेहूं, चना आदि तथा संमूच्छिन्–अपने आप उत्पन्न होनेवाली धास आदि वनस्पतिकाय प्रत्येक तथा साधारण दोनों प्रकारके होते हैं। ६६ ।। योगका लक्षण सति वीर्यान्तरायस्य क्षयोपशमसम्भवे । योगो ह्यात्मप्रदेशानां परिस्पन्दो निगद्यते ॥६७|| अर्थ-वीर्यान्तरायकर्मका क्षयोपशम होनेपर आत्मप्रदेशोंका हलन-चलन होना योग कहलाता है ।। ६७ ।। योगके पन्द्रह भेद चत्वारो हि मनोयोगा वाग्योगानां चतुष्टयम् | काययोगाश्च सप्तव योगाः पञ्चदशोदिताः ।।६८।। अर्थ-चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग सब मिलाकर पन्द्रह योग कहे गये हैं ॥ ६८ ॥ मनोयोगके चार भेद मनोयोगो भवेत्सत्यो मृषा सत्यमृषा तथा । तथाऽसत्यमृषा चेति मनोयोगश्चतुर्विधः ॥६॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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