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________________ ५२ तत्वार्थसार रौप्यं सुवर्णं वज्रं च हरितालं च हिङ्गुलम् | मनःशिला तथा तुत्थमज्जनं सप्रवालकम् ॥५९॥ क्रिरोलका के चैव मणिभेदाश्व वादराः | गोमेदो रुचकाङ्क स्फटिको लोहितप्रभः ॥ ६०॥ वैडूर्य चन्द्रकान्तश्च जलकान्तो रविप्रभः । गैरिकश्चन्दनव वर्चूरी रुचकस्तथा ॥ ६१ ॥ मोठो मसारगन्लब सर्व एते प्रदर्शिताः । पत्रिंशत्पृथिवीभेदा भगवद्भिर्जिनेश्वरः ॥६२॥ t अर्थ — १ मिट्टी, २ रेत, ३ चुनकंकरी, ४ पत्थर, ७ लोहा, ८ ताँबा, ९ रांगा, १० सीसा, ११ चांदी, १४ हरताल १५ ईंगुर, १६ मैनसिल १७ तूतिया, १८ सुरमा 2 P २० क्रिरोलक ( ? ), २१ भोड़ल, बड़ी-बड़ी मणियोंके खण्ड २३ रुचकाङ्क, २४ स्फटिक, २५ पद्मराग, २६ वैडूर्य २७ चन्द्रकान्त, २८ जलकान्त, २९ सूर्यकान्त ३० गैरिक, ३१ चन्दन, ३२ वर ३३ रुचक, ३४ मोठ, ३५ मसार और ३६ गल्ल नामक मणि ये सब पृथिवीकायिकके छत्तीस भेद जिनेन्द्र भगवान् कहे हैं । ५८--६२ ।। 1 , ५ शिलाएँ, १२ सोना, ६ नमक, १३ होरा, १९ मूँगा, २२ गोमेद, जलका थिक जीवोंके भेद अवश्यायो हिम चिन्दुस्तथा शुद्धघनोदके । शीतकाद्याच विज्ञेया जीवाः सलिलकायिकाः ||६३ ॥ अर्थ- ओस, वर्फके कण, शुद्धोदक- चन्द्रकान्तमणिसे निकला पानी, मेघसे तत्काल वर्षा हुआ पानी तथा कुहरा आदि जलकायिक जीव जाननेके योग्य हैं ।। ६३ ।। अग्निकायिक जीवोंके भेद ज्वालाङ्गारास्तथार्चिश्व मुर्मुरः शुद्ध एव च । अग्निवेत्यादिका ज्ञेया जीवा ज्वलनकायिकाः ||६४ || अर्थ — ज्वालाएँ, अंगार, अर्चि-अग्निको किरण, मुर्मुर – अग्निकण ( भस्मके भीतर छिपे हुए अग्निके छोटे-छोटे कण) और शुद्ध अग्नि-सूर्यकान्तमणिसे उत्पन्न अग्नि ये सब अग्निकायिक जीव जाननेके योग्य हैं ।। ६४ ।।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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