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________________ तस्वार्थसार अर्थ-सत्य मनोयोग, असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग और अनुभय मनोयोना ये मनोयोगके चार भेद हैं॥ ६९ ।। वचनयोगके चार भैर वचोयोगो भवेत्सत्यो मृषा सत्यमृषा तथा । तथाऽसत्यमृषा चेति वचोयोगश्चतुर्विधः ॥७०।। अर्थ सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग और अनुभय वचनयोग ये वचनयोगके चार भेद हैं । भावार्थ-सत्यवचनयोग आदिके लक्षण इस प्रकार हैं-गाभ्यान्तानके विषयभूत पदार्थको सत्य कहते हैं, जैसे-जलको जल कहना । मिथ्याज्ञानके विपयभूत पदार्थको असत्य कहते हैं; जैसे-मृगतृष्णाको जल कहना । दोनोंके विषयभूत पदार्थको उभय कहते हैं। जैसे-कमण्डलुको घट कहना। कमण्डलुसे घटका काम लिया जा सकता है इसलिये सत्य है और कमण्डलका आवार घटसे भिन्न है इसलिये असत्य है। जो दोनों ही प्रकारके ज्ञानका विषय न हो उसे अनुभय कहते हैं; जैसे-सामान्यरूपसे यह प्रतिभास होना कि 'यह कुछ है। यहाँ सत्य-असत्यका कुछ भी निर्णय नहीं होता इसलिये अनुभय है। इन चार प्रकारके वचनोंसे आत्माके प्रदेशोंमें जो हलन-चलन होता है वह सत्यवचनयोग आदि कहलाता है ।। ७० ॥ ___ काययोगके सात भेव औदारिको क्रियिका कायश्चाहारकश्च ते । मिश्राश्च कार्मणं चैव काययोगोऽपि सप्तधा ॥७१।। अर्थ औदारिक, औदारिकमिश्र, बैंक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण इस तरह काययोग भी सात प्रकारका होता है । भावार्थ-मनुष्य और तिपंञ्चोंके उत्पत्तिके प्रथम अन्तर्मुहूर्तमें औदारिकमिश्र काययोग होता है। उसके बाद जीवनपर्यन्त औदारिक काययोग होता है । देव और नारकियोंके उत्पत्तिके प्रथम अन्तर्मुहूर्तमें वैक्रियिकमित्र काययोग होता है | उसके बाद जीवनपर्यन्त वैक्रियिक काययोग होता है । छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिके आहारक शरीरका पुतला निकलनेके पहले आहारकमिश्र काययोग होता है । उसके बाद अन्तर्मुहूर्त तक आहारक काययोग रहता है। विग्रहगतिम सभी जीवोंके कार्मण काययोग होता है । तेरहवें गुणस्थानमें केलिसमुद्घातके समय दण्डभेदमें औदारिक काययोग, कपाटमें औदारिकमिश्र काययोग और
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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