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________________ ५४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ स्कन्ध उक्तो न परमाणु स्तस्यैकप्रदेशत्वादविभागिनोऽनन्तभागीकरणासम्भवात्सूत्रमपीदमनुपपन्न स्यात् । ततः स्थितमेतत्सर्वावधिविषयस्यानन्तभागी कृतस्यान्त्ये भागे मन:पर्ययस्य विषयसम्बन्ध इति । अथान्ते निर्दिष्टस्य केवलस्य केषु विषयनिबन्ध इति दर्शयति । सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।। २६ ।। द्रव्याणि च पर्यायाश्च द्रव्यपर्यायाः । सर्वे च ते द्रव्यपर्यायाश्च सर्वद्रव्यपर्यायास्तेषु । सर्वेषु द्रव्येषु सर्वेषु पर्यायेषु तद्भ ेदप्रभेदेषु च सर्वेष्वनन्तानन्तेष्वप्यपरिमितमाहात्म्यं केवलज्ञानं ग्राहकत्वेन सूत्रोक्त तत् शब्द सर्वावधि के विषय का सूचक है उस सर्वावधि का विषय जो कर्म - द्रव्य है उसके अनन्तबार भाग करने पर जो अन्तिम भाग महास्कन्ध है, जो कि परमाणुरूप नहीं है, क्योंकि परमाणु एक प्रदेशी होने से अविभागी है उसके अनन्तभाग करना असंभव है, और इससे यह सूत्र भी गलत सिद्ध होगा अर्थात् यदि सर्वावधि का विषय परमाणु मानते हैं तो उसके अनन्त भाग संभव नहीं है अतः अवधि के विषयभूत द्रव्य के अनन्तवें भाग में मन:पर्यय का विषय होता है ऐसा इस सूत्र का अर्थ सिद्ध नहीं होता, इसलिये सर्वावधि का विषय कर्मद्रव्य रूप बड़ा स्कन्ध लेना चाहिये और उसका अनन्तवाँ भाग प्रमाण मन:पर्यय का विषय है । इसप्रकार निश्चित हुआ कि सर्वावधि के विषय के अनन्त भागों में से अन्तिम भाग मन:पर्यय ज्ञान का विषय है । अब अन्त में कहे हुए केवलज्ञान का किनमें विषय निबन्ध है इसका कथन करते हैं— सूत्रार्थ - संपूर्ण द्रव्य और उनकी संपूर्ण पर्यायों में केवलज्ञान का विषय निबन्ध होता है । "सर्वद्रव्यपययेषु" इसमें प्रथम द्वन्द्व समास करके पुनः कर्मधारय समास किया गया है, सभी द्रव्य और उन द्रव्यों के भेद प्रभेद एवं उनकी सभी अनंतानन्त पर्यायें इन सबमें ही केवलज्ञान प्रवृत्त होता है, इसतरह अचिन्त्य अपरिमित माहात्म्य वाला यह केवलज्ञान है । इसतरह का विशिष्ट ज्ञान संभव नहीं है ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिये देखिये ! इस केवलज्ञान की अनुमान से सिद्धि करते हैं—किसी पुरुष का ज्ञान उत्कृष्टता की चरम सीमा को प्राप्त होता है क्योंकि वह बढ़ते हु परिमाण वाला है, जो परिमाण बढ़ता हुआ रहता है वह चरम सीमा तक बढ़ जाता है जैसे बढ़ता हुआ छोटा बड़ा माप आकाश में पूर्णरूप बढ़ जाता है अर्थात् आकाश
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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