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________________ प्रथमोऽध्यायः [ ५५ प्रवर्तते । न चैतदसम्भवीति वक्तव्यमनुमानतस्तत्सिद्धेः तथाहि कस्यचिज्ज्ञानं प्रकर्षपर्यन्तमेति प्रकृष्यमाणत्वान्नभसि परिमाणवत्तदेवास्माकं केवलमित्यलं विस्तरेण । एकस्मिन्नात्मनि ज्ञानानि यौगपद्येन कति सम्भवन्तीत्यावेदयति एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्यः ।। ३० ॥ ____ एकमद्वितीयमादिरवयवो येषां तान्येकादीनि ज्ञानानि । भाज्यानि योज्यानि । युगपदेककाले। एकस्मिन्नात्मनि चत्वार्यभिव्याप्येत्यर्थः तद्यथा-एक तावत्क्वचिदात्मनि क्षायिकमसहायं च केवलज्ञानं सम्भवति तेन सह कर्मजक्षायोपशमिकान्यज्ञानानामसम्भवात् प्रकृष्टश्रु तरहितं मतिज्ञानं वा । क्वचिद्वे मतिश्रु ते। क्वचित्त्रीणि मतिश्रु तावधिज्ञानानि । मतिश्रु तमनःपर्ययज्ञानानि वा । क्वचिच्चत्वारि सर्वोत्कृष्ट परिमाण वाला है वैसे हम जैन का केवलज्ञान सर्वोत्कृष्ट प्रमाणवाला ज्ञान है, अब इस विषय में अधिक नहीं कहते हैं [ पूर्ण केवलज्ञानी और सर्वज्ञ की सप्रमाण सिद्धि के लिये प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्ट सहस्री श्लोकवात्तिक आदि न्याय ग्रन्थोंको अवलोकन करना चाहिये । ] एक आत्मा में एक साथ कितने ज्ञान संभव हैं ऐसा प्रश्न होने पर सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ-एक आत्मा में एक साथ एक ज्ञान को लेकर चार ज्ञान तक ज्ञान होना संभव हैं । एक अद्वितीय को कहते हैं, आदि शब्द अवयववाची है, एक अवयव है जिनके वे एकादि ज्ञान कहलाते हैं इसतरह 'एकादीनि' पद का समास है। भाज्य अर्थात् योज्य युगपद् का अर्थ एक काल में है, एक आत्मा में चार ज्ञान अभिव्याप्त हैं यह अर्थ हुआ । इसीको बताते हैं-किसी आत्मा में ( परमात्मा में ) एक, क्षायिक, असहाय ऐसा स्वभाव वाला केवलज्ञान होता है । यह एक ही रहता है क्योंकि इस क्षायिक ज्ञान के साथ कर्मों के क्षयोपशम से होनेवाले अन्य मति आदि ज्ञान रहना असंभव है प्रकृष्ट श्रुत से रहित मतिज्ञान भी एक रहता है [ किन्हीं जीवों के अत्यत अल्प थ्रत रहता है उन जीवों के जो मतिज्ञान है श्रुत अल्प होने से नहीं के समान है इस दृष्टि से इन जीवों के एक मतिज्ञान है ऐसा कह सकते हैं ] किन्हीं आत्मा में मति और श्रुत ये दो ज्ञान रहते हैं, किन्हीं जीवों में मति, श्रुत और अवधि ये तीन अथवा मति, श्रुत और मनःपर्य य ये तीन ज्ञान विद्यमान रहते हैं। किन्हीं आत्मा में
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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