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प्रथमोऽध्यायः
[ ५३ मर्थः-जीवादिद्रव्येष्वखिलेषु यथासम्भवं कतिपयपर्यायविशिष्टषु मतेरिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्ताया मूर्तेषु विषयनिबन्धो भवति । अमूर्तेषु पुनरनिन्द्रियनिमित्ताया मतेविषयसम्बन्धः स्यात् । श्रुतस्य च मूर्ताऽमूर्तेषु स विज्ञेयः । अवधेः केषु विषयनिबन्ध इत्याह
रूपिष्ववधेः ॥ २७ ॥ रूपिणः पुद्गला इति वक्ष्यति । तत्सम्बन्धत्वाज्जीवाश्च कथंचिद्रूपिण इति गृह्यन्ते । असर्वपर्यायेष्विति च वर्तते । ततस्तेषु कतिपयपर्याययुक्त ष्ववधेविषयनिबन्धनं वेदितव्यम् । मनःपर्ययस्य क्व विषयनिबन्ध इत्यावेदयति ।
तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥२८॥ तच्छब्देन सर्वावधिविषयस्य सम्प्रत्ययः स च कर्मद्रव्यस्यानन्तभागीकृतस्यान्त्यो भागो महा
विषय रूप नहीं हैं उनको असर्वपर्याय कहते हैं, उन असर्व पर्याय वाले द्रव्यों में "द्रव्येषु असर्व पर्यायेषु" ऐसा बहुवचन का प्रयोग जीवादि सर्व द्रव्यों के संग्रह के लिये किया है, इससे यह अर्थ निकलता है कि जीवादि सभी द्रव्यों की कतिपय पर्यायों में इन्द्रिय
और अनिन्द्रिय से होने वाला मतिज्ञान प्रवृत्त होता है, मूर्तिक द्रव्य पर्यायों में तो इन्द्रिय अनिन्द्रियज मतिज्ञान प्रवृत्त होता है और अमूर्त द्रव्य पर्यायों में अनिन्द्रियज मतिज्ञान का विषय है । श्रुतज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त द्रव्य पर्याय है।
अब अवधि का विषय निबन्ध किनमें है ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं
सूत्रार्थ-अवधिज्ञान का विषय रूपी द्रव्य पर्यायों में है। "रूपिणः पुद्गलाः" ऐसा आगे सूत्र कहेंगे, उस पुद्गल द्रव्य को तथा उसके सम्बन्ध से जीव भी कथंचित् रूपी कहे जाते हैं इसतरह पुद्गल और पुद्गल से युक्त जीव इन दोनों को अवधिज्ञान ग्रहण करता है, “असर्वपर्यायेषु" इस पद का अनुवर्तन है अतः पुद्गल और पुद्गल से संबद्ध जीवों की कतिपय पर्यायों को अवधिज्ञान विषय करता है ऐसा जानना चाहिये।
मनःपर्यय ज्ञान का कहां विषय निबन्ध है इस बात को बतलाते हैं
सूत्रार्थ-उस अवविज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग में मनःपर्यय का विषय निबन्ध है।