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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती स्वामिविशेषोऽस्ति । अवधिस्तु सम्यग्दृष्टिषु चातुर्गतिकेष्वपि जायते । इदानीं केवलज्ञानं प्राप्तावसरमपि नेह ज्ञानाधिकारे उक्त तस्यसाक्षान्मोक्षं प्रति प्रधानकारणत्वेन मोक्षाधिकारे वक्ष्यमाणत्वात् । तदुल्लङ्घय सर्वज्ञानानां विषयसम्बन्धविप्रतिपत्तौ सत्यां तावदाद्यज्ञानयोस्तन्निराकरणार्थमाह
___मतिश्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥ २६ ॥ मतिश्रुते उक्तलक्षणे । निबन्धनं निबन्धः-सम्बन्ध इत्यर्थः । अत्र निबन्धशब्दसामर्थ्यात्पूर्वसूत्राद्विषयशब्दोऽनुवर्तते । तस्य चार्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति कृत्वा विषयस्य विषयेष्विति वा षष्ठयन्तता सप्तम्यन्तता वा भवति । द्रव्यपर्याया वक्ष्यमाणलक्षणाः । न सर्वे पर्याया विषयत्वेन सन्ति येषां द्रव्याणां तान्यसर्वपर्यायाणि तेषु द्रव्येष्वित्यत्र बहुवचननिर्देशो जीवादिसर्वद्रव्यसंग्रहार्थः । ततोऽय
अपेक्षा ] असंख्यात लोक प्रमाण है। अवधि और मनःपर्यय का विषय आगे कह रहे हैं । स्वामित्व को बतलाते हैं-प्रमत्त संयत नामा छठे गुणस्थान से लेकर क्षीणपर्यन्त के गुणस्थान के मुनियों के मनःपर्यय ज्ञान होता है उनमें भी सबके नहीं होता प्रवर्द्धमान चारित्र वाले के होता है इनमें भी जो मुनिराज सात ऋद्धियों में से अन्यतम ऋद्धि बाले के ही होता है, ऋद्धि प्राप्त में किसी किसी के होता है सबके नहीं, इसतरह मनःपर्य य के स्वामी कहे । अवधिज्ञान चारों गतियों वाले सम्यग्दृष्टियों के होता है, इसतरह अवधिज्ञान के स्वामी जानना चाहिये। - इस समय केवलज्ञान के कथन का अवसर है तो भी यहां ज्ञानाधिकार में नहीं कहते हैं । केवलज्ञान मोक्ष का साक्षात् रूप प्रधान कारण है अतः आगे [ दसवें अध्याय में ] मोक्षाधिकार में कहेंगे । केवलज्ञान का वर्णन छोड़कर सभी ज्ञानों के विषय सम्बन्धि विवाद होने पर उसको दूर करने के लिये आदि के दो ज्ञानों का विषय क्या है यह बतलाते हैं
सूत्रार्थ - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय संबंध सभी द्रव्यों की कतिपय पर्याय स्वरूप है । मति और श्रुत का लक्षण कह चुके हैं । सम्बन्ध को निबन्ध कहते हैं, इस सूत्र के निबन्ध शब्द की सामर्थ्य से पूर्व सूत्र के विषय शब्द का अनुवर्तन करते हैं । वहां के विषय शब्द के विभक्ति का परिणमन अर्थवश से हो जाता है, अतः उस विषय शब्द की "विषयस्य विषयेषु वा" इसप्रकार षष्ठी या सप्तमी विभक्ति होती है। द्रव्य और पर्यायों का लक्षण आगे कहेंगे। जिन द्रव्यों की सभी पर्याये