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________________ प्रथमोऽध्यायः [ ५१ तत्स्वामिनां कषयोद्रेके हीयमानचारित्रोदयत्वात् । तटवधिमनःपर्यययोः कुतो विशेष इत्याह विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ।। २५ ॥ विशुद्धिः प्रसाद उक्तः । क्षेत्रं ग्राह्यपदार्थाधारः । स्वामी प्रयोजकः । विषयो ज्ञेयपदार्थः । एतेभ्योऽवधिमनःपर्यययोरन्योन्यतो भेदो विज्ञेयः तत्रावधेः सकाशान्मनःपर्ययः सूक्ष्मतरविषयत्वादेव विशुद्धतर उक्तः । क्षेत्रं चोक्तम् । विषयस्तु वक्ष्यमाणः । स्वामित्वं कथ्यते—प्रमत्तादिक्षीणकषायान्तेषु यतिषु प्रवर्धमानचारित्रेष्वेव सप्तविधान्यतद्धि प्राप्तेष्वेव केषु चिन्मनःपर्ययो जायते न सर्वेष्वित्यस्य किन्तु ऋजुमति प्रतिपाती है, क्योंकि उसके स्वामी कषाय का उद्रेक होने पर हीयमान चारित्र वाले हो जाते हैं । ऋजुमति और विपुलमति में परस्पर में होने वाली विशेषता इसप्रकार है तो अवधि और मनःपर्यय में किस अपेक्षा विशेषता है ऐसा पूछने पर कहते हैं सूत्रार्थ-विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयों की अपेक्षा अवधि और मनःपर्यय ज्ञानों में विशेषता है । प्रसाद को विशुद्धि कहते हैं ऐसा पूर्व सूत्र में कह दिया है । ज्ञान द्वारा ग्राह्य-जानने योग्य पदार्थों के आधार को क्षेत्र कहते हैं । जो इन ज्ञानों का प्रयोग करता है अर्थात् जिनके ये ज्ञान होते हैं उन्हें स्वामी कहते हैं । ज्ञेय पदार्थ विषय कहलाता है, इनसे अवधि और मनः पर्यय में परस्पर में भेद है। इसीको कहते हैं-अवधि से मनःपर्यय सूक्ष्म विषयवाला होने से विशुद्धतर है, इनका क्षेत्र कह दिया है। विशेषार्थ-मनः पर्ययज्ञान का क्षेत्र जघन्य से कोस पृथक्त्व और उत्कृष्ट से मानुषोत्तर पर्वत तक बता ही दिया है । देव और नारकी की अपेक्षा क्षेत्र का वर्णन"भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणां" इस सूत्र के विशेषार्थ में किया जा चुका है। तिर्यञ्च और मनुष्य के अवधि का क्षेत्र बतलाते हैं-तिर्यञ्च के अवधि का जघन्य क्षेत्र घनांगुल के असंख्यातवें भाग मात्र है और उत्कृष्ट लोक के संख्यातवें [ असंख्यातवें भाग ] प्रमाण है। मनुष्य के देशावधि परमावधि और सर्वावधि तीनों अवधिज्ञान होते हैं [ परमावधि और सर्वावधि चरमशरीरी महामुनि के ही होता है ] देव नारकी और तिर्यञ्च के तो केवल देशावधि होता है। मनुष्य के अवधिज्ञान का क्षेत्र जघन्य से घनांगुल के असंख्यातवें भाग मात्र है और उत्कृष्ट से [ सर्वावधि की
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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