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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
पतनमप्रतिपातः । तयोरुजुमतिविपुलमत्योर्मनः पर्ययोः परस्परं भेदो विशेषस्तद्विशेषः । विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तयोर्विशेषो ज्ञेय इति सम्बन्धः । तत्र विशुद्धया तावदृजुमतेः सकाशाद्विपुलमतिर्द्रव्यक्षेत्रकालभावैविशुद्धतरः । तद्यथा - द्रव्यतस्तावद्यः कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्त्यः सर्वावधेः सूक्ष्मत्वेन विषयोऽनन्तानन्तपरमाण्वात्मकः पुद्गलस्कन्ध उक्तस्तस्य पुनरनन्तभागीकृतस्याऽन्त्यो भाग ऋजुमतेविषयः । तस्यापि ऋजुमतिविषयस्यानन्तभागीकृतस्यान्त्यो भागो विपुलमतेर्विषयोऽनन्तस्यानन्तभेदत्वात् सङ्ख्य यासङ्ख्यययोः सङ्ख्ययासङ्ख्यं यभेदवत् । सोपि स्कन्धो न परमाणुः । क्षेत्रकालौ पूर्वमेवोक्तौ । भावतो विशुद्धिः सूक्ष्मतरद्रव्यविषयत्वादेव वेदितव्या प्रकृष्टक्षयोपशमसम्बन्धात् । अप्रतिपातेनापि विपुलमतिर्विशिष्टस्तत्स्वामिनां वर्धमानचारित्रोदयत्वे सति प्रच्यवनाभावात् । ऋजुमतिस्तु प्रतिपाती
अपने आवरण कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से जीव में जो प्रसन्नता निर्मलता होती है वह विशुद्धि कहलाती है । नहीं छूटने को अप्रतिपात कहते हैं । इनकी अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्यय ज्ञानों में परस्पर में भेद विशेष पाया जाता है । विशुद्धि और अप्रतिपात द्वारा उनमें विशेष जानना चाहिये ऐसा वाक्य संबंध है । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों से विशुद्धतर है [ अधिक विशुद्ध है ] इसी का खुलासा करते हैं सर्वावधि ज्ञान का विषय द्रव्य की अपेक्षा कार्मण द्रव्य के अनंत करने पर जो अन्तिम भाग आता है जो कि अनंतानंत परमाणुओं का पुद्गल स्कन्ध है उतना कहा गया है, उस स्कन्ध के पुनः अनंत भाग करने पर जो अन्तिम भाग आवेगा वह ऋजुमति का द्रव्य की अपेक्षा विषय है, उस ऋजुमति के विषय के पुनः अनन्त बार भाग देने पर जो अन्तिम भाग आयेगा वह विपुलमति का द्रव्य की अपेक्षा विषय है, क्योंकि अनन्त के अनन्त भेद होते हैं, जैसे कि संख्यात के संख्यात भेद और असंख्यात के असंख्यात भेद होते हैं । यह जो विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान का विषय आया है वह भी स्कन्ध रूप है, परमाणु रूप नहीं है । इन मन:पर्यय ज्ञानों का क्षेत्र और काल प्रमाण पहले [ २३ सूत्र में ] कह दिया है । ऋजुमति और विपुलमति की भाव की अपेक्षा विशुद्धि तो यह है कि वे दोनों ज्ञान सूक्ष्म और सूक्ष्मतर द्रव्य को विषय करते हैं अर्थात् ऋजुमति का जो द्रव्य है उससे भी सूक्ष्म द्रव्य विपुलमति मन:पर्यय का है अतः ऋजुमति से विपुलमति भाव की अपेक्षा विशुद्धतर [ अधिक विशुद्ध ] है । विपुलमति अप्रतिपात की अपेक्षा भी विशिष्ट है; क्योंकि विपुलमति के स्वामी प्रवर्द्धमान चारित्र वाले होते हैं उनके च्युत होने का अभाव है ।