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प्रथमोऽध्यायः
[ ४९ व्युत्पत्तिद्वारेणैव लक्षणस्य प्रतिपादनात् । स एवंविधो मनःपर्यय ऋजुमतिविपुलमतिश्चेति विभेदो भवति । तत्र ऋजुमतिः कालतो जघन्येन परेषामात्मनश्च द्वित्रीणि भवग्रहणानि । उत्कर्षेण सप्ताष्ट वा तानि गत्यागत्यादिभिर्जानाति । क्षेत्रतो जघन्येन गव्यूतिपृथक्त्वम् । उत्कर्षेण योजनपृथक्त्वस्याभ्यन्तरं जानाति न बहिः । विपुलमतिः कालतो जघन्येन सप्ताष्टानि भवग्रहणानि । उत्कर्षेणासङ्खययानि गत्यागत्यादिभिः प्ररूपयति । क्षेत्रतो जघन्येन योजनपृथक्त्वम् । उत्कर्षेण मानुषोत्तरशैलस्याभ्यन्तरं प्ररूपयति न बहिः । त्रयाणामुपरि नवानामधो मध्यसङ्खयायाः पृथक्त्वमित्यागमसंज्ञा । ऋजुमतिविपुलमत्योः पुनरपि विशेषप्रतिपत्त्यर्थ माह
विशुद्धचप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २४ ॥ स्वावरणक्षयोपशमनिमित्तो जीवस्य प्रसत्तिः प्रसादो नर्मल्यं विशुद्धिः । अप्रच्यवनमप्रति
समास करके बहुव्रीहि समास द्वारा मति शब्द जोड़ना चाहिये, यह सूत्रोक्त ऋजु विपुलमती पद का विग्रह है । इसतरह मनःपर्यय के दो भेदों का कथन किया। मनःपर्यय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से परकीय मन के सम्बन्ध से उत्पन्न हुए उपयोग विशेष को मनःपर्य य कहते हैं । यह लक्षण का कथन हुआ । मति आदि ज्ञानों का भी व्य त्पत्ति रूप से ही लक्षण कहा था। इसप्रकार यह मनःपर्य य ज्ञान ऋजुमति और विपुलमति दो प्रकार का जानना चाहिये। उनमें ऋजुमति काल की अपेक्षा जघन्य से अपने और पर के दो तीन भव जानता है। उत्कृष्ट से सात आठ भव गति आगति द्वारा जानता है । क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से कोस पृथक्त्व [सात आठ कोस] और उत्कृष्ट से योजन पृथक्त्व क्षेत्र को जानता है। विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान जघन्य से काल की अपेक्षा सात आठ भव और उत्कृष्ट से असंख्यात भव गति आगति द्वारा जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजन पृथक्त्व और उत्कृष्ट से मानुषोत्तर पर्वत के अभ्यन्तर को जानता है, इसके बाहर के क्षेत्र को नहीं जानता । तीन के ऊपर और नौ के नीचे ऐसी बीच की संख्या को आगम में पृथक्त्व कहते हैं ।
ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान में होनेवाली विशेषता को बतलाने के लिये सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ-विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्यय ज्ञानों में भेद है।