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________________ ४८ ] सुखबोधायां तत्वार्थवृत्तौ माण एवावतिष्ठते न वर्धते नापि हीयते लिङ्गवत्, ग्राभवक्षयादाकेवलज्ञानोत्पत्तेर्वा सोऽवस्थितोऽवधिः । यः पुनः सम्यग्दर्शनादिगुण वृद्धिहानियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो वर्धते यावदनेन वर्धितव्यम् । हीयते च यावदनेन हातव्यं वायुवेगप्रेरितजलोमिवत्सोऽनवस्थितोऽवधिः । एवमयं षड्विकल्पो भवति । इदानीं मन:पर्ययस्य भेदलक्षणव्याख्यानार्थमाह ऋजुविपुलमती मन:पर्ययः ।। २३ ।। निर्वर्तिता प्रगुणा च या मतिः सा ऋज्वीत्युच्यते । कुत इति चेत् निर्वर्तितप्रगुणवाक्कायमन :स्मृतार्थस्य परमनोगतस्य विज्ञानात् । ऋज्वी मतिर्यस्य सोऽयमृजुमतिः । अनिर्वर्तिता कुटिला च या मतिः सा विपुलेत्युच्यते । कस्मात् ? अनिर्वर्तितकुटिलवाक्कायमनः स्मृतार्थस्य परकीयमनोगतस्यावबोधनात् । विपुला मतिर्यस्य सोऽयं विपुलमतिः । ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च ऋजुविपुलमती । उक्तार्थत्वादेकस्य मतिशब्दस्य लोपः । अथवा ऋज्वी च विपुला च ऋजुविपुले । ते मती ययोस्ती ऋजुविपुलमती इति विग्रहः कार्यः । अनेन भेदकथनं कृतम् । मन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमवशात्परकीयमनःसम्बन्धेनोपजायमान उपयोगविशेषो मन:पर्ययः । अनेन तु लक्षणमुक्त, मत्यादिज्ञानानामपि अवधिज्ञान को अवस्थित कहते हैं । सम्यग्दर्शनादि गुणों में कभी हानि और कभी वृद्धि होने से जितने प्रमाण में जो अवधि उत्पन्न हुई है उससे हानि और वृद्धि दोनों रूप होते रहना अर्थात् जितना बढ़ना चाहिये वहां तक बढ़ते रहना और जितना घटना चाहिये उतना घटना जैसे वायु के वेग से प्रेरित जल की तरंगे होती हैं ऐसे अवधि को अवस्थित कहते हैं । इसतरह अवधिज्ञान के छह भेद होते हैं । अब इस समय मन:पर्यय ज्ञान के भेद और लक्षण के व्याख्यान के लिये सूत्र कहते हैं— सूत्रार्थ - ऋजुमति और विपुलमति ऐसे मन:पर्यय ज्ञान के दो भेद हैं । निर्वर्तित और सरल रूप जो मति है वह ऋजु कहलाती है क्योंकि सरल रूप से चिन्तित वचन, काय और मन द्वारा स्मृत ऐसे पर के मन में स्थित पदार्थ को जानती है, ऋजु है मति जिसकी वह ऋजुमति कहलाती है । अनिर्वर्तित और कुटिल रूप जो मति हो वह विपुल है, क्योंकि कुटिल रूप से चिन्तित मन वचन काय द्वारा स्मृत ऐसेपरकीय मन में स्थित पदार्थ को जानती है, विपुल है मति जिसकी वह विपुल मति कहलाती है । ऋजुमति और विपुलमति पदों का द्वन्द्व समास कर एक मति शब्द का उक्तार्थ होने से लोप करना अथवा पहले ऋजु और विपुल इन दो पदों का द्वन्द्व
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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