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प्रथमोऽध्यायः
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निमित्तः । षड्विकल्पा भेदा यस्यासौ षड्विकल्पः । उक्त ेभ्यो देवनारकेभ्योऽन्ये शेषा मनुष्यास्तिर्यञ्चश्च । तेषां शेषाणां संज्ञिपर्याप्तकानां सम्यग्दर्शनादिनिमित्तसन्निधाने सति शान्तक्षीणकर्मणां षड्भेदोऽवधिर्जायत इति समुदायार्थः । स कुतः षड्विकल्प उक्त इति चेत् — अनुगाम्यननुगामिवर्धमानही मानावस्थितानवस्थितभेदात् । तत्र भास्करप्रकाशवद्देशान्तरं गच्छन्तमनुगच्छति विशुद्धिपरिणामवशात्सोवधिरनुगामी । यस्तु विशुद्धेरननुगमनान्न गच्छन्तमनुगच्छति किं तर्हि तत्रैव निपतति, शून्यहृदयपुरुषादिष्ट प्रश्नवचनवत् सोऽननुगामी । सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धिप्रकर्षाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो योऽवधिर्वर्धते आअसङ्ख्य यलोकेभ्यः स वर्धमानो यथोपचीयमानेन्धनसमिद्धपावकः । सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेशवृद्धियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो यो हीयते श्रअंगुलासङ्ख्यं यभागात्स हीयमानो - ऽवधिर्यथाऽपकृष्यमाणेन्धनाग्निशिखा । यस्तु सम्यग्दर्शनादिगुणावस्थानाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्तत्परि
क्षय से तथा जो सर्वघाती स्पर्धक अनुदय रूप [ उदयावली के बाहर स्थित ] हैं उनका सदवस्थारूप उपशम होना ये दोनों कारण जिस अवधिज्ञान में पड़ते हैं भव कारण नहीं पड़ता वह क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान कहलाता है, इसके छह भेद हैं । कहे गये देव नारकी से जो शेष मनुष्य और तिर्यञ्च हैं उन जीवों के यह ज्ञान होता है । संज्ञी पर्याप्तक ऐसे इन शेष मनुष्य तिर्यंचों के जिनके कि अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हुआ है उनके यह छह भेदवाला अवधिज्ञान होता है ऐसा समुदायार्थ है । छह भेद कौनसे हैं, ऐसा प्रश्न होने पर बतलाते हैं, अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित । इनमें से जो अवधिज्ञान परिणाम की विशुद्धि से सूर्य के प्रकाश के समान देशान्तर में जाने वाले के साथ जाता है वह अनुगामी है। विशुद्धि के नहीं होने से जो देशान्तर में साथ नहीं जाता, वहीं रह जाता है जैसे शून्य हृदय वाले पुरुष का किया गया प्रश्न वहीं समाप्त होता है अर्थात् उस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता ऐसी अवधि अननुगामी है । सम्यग्दर्शन आदि गुणों के वृद्धिंगत होने से जो अवधिज्ञान जितने प्रमाण में उत्पन्न हुआ था उससे असंख्यात लोक प्रमाण तक बढ़ता जाता है, जैसे ईंधन के बढ़ते रहने से अग्नि बढ़ती जाती है । ऐसे अवधि को वर्द्धमान अवधि कहते हैं । सम्यग्दर्शनादि गुणों की हानि और संक्लेश की वृद्धि होने से जितने प्रमाण उत्पन्न हुई थी उससे अंगुल के असंख्यातवें भाग तक घटते जाना जैसे ईंधन के घट जाने से अग्नि घटती जाती है ऐसी अवधि हीयमान कहलाती है । सम्यग्दर्शनादि गुणों के अवस्थित रहने से जो अवधि जितने प्रमाण में उत्पन्न हुई थी उतनी ही बनी रहना, न घटती है न बढ़ती है, जैसे लिंग घटता बढ़ता नहीं, ऐसे