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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती सङ्ख्या कोट्यष्टकमेकं च लक्षमष्टौ सहस्राणि शतं चैकं पञ्चसप्तत्यधिकं (८०१०८१७५)। तस्य च द्रव्यापिणया कृतकत्वाभावादनाद्यनिधनत्वम् । पर्यायार्पणया पुनरनुवादद्वारेण कृतकत्वसम्भवात्सादिसनिधनत्वं चास्ति । श्रुतस्य हि त्रयः कर्तारो भवन्ति-मूलकर्ता उत्तरकर्ता उत्तरोत्तरकर्ता चेति । तत्रार्थतो मूलकर्ता सर्वज्ञवीतरागो भगवानहंस्तीर्थकर इतरो वा केवली। ग्रन्थतस्तूत्तरकर्ता वीतरागोऽतिशयज्ञानद्धिसम्पन्नो गणधरदेवः । उत्तरोत्तरकर्ता पुनरारातीयतच्छिष्यप्रशिष्यादिः । तत्सर्वं प्रमाणं निर्दोषज्ञानिप्रकाशितत्वात्प्रत्यक्षादिप्रमाणाबाधितत्वाच्च प्रमाणान्तरवदिति । परोक्ष प्रमाणात्मके मतिश्र तज्ञाने निरूप्येदानी प्रत्यक्षस्यावधेः कारणलक्षणस्वामिस्वरूपनिरूपणार्थमाह
प्रविष्ट के पदों की वर्ण संख्या एक लाख कोडाकोडी, चौरासी हजार चार सौ सड़सठ करोड़, चवालीस लाख सात सौ संतीस, पंचानवे लाख इकावन हजार छह सौ पंद्रह १८४४६७४४०७३७०६५५१६१५ है । अर्थ पद जो होता है वह अनियत वर्ण वाला होता है, कोई अर्थ पद एक अक्षर वाला, कोई दो अक्षर वाला और कोई तीन अक्षर वाला आदि होता है ऐसा जानना चाहिये । प्रमाणपद आठ अक्षर वाला होता है, उससे अंग बाह्य श्रुत रचा जाता है ।
अंगबाह्य श्रुत के वर्गों की संख्या से एक पद [ मध्यम पद ] भी नहीं बन पाता । इस अंग बाह्य श्रुत में तो आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर ही वर्ण होते हैं [ ८०१०८१७५ ] यह संपूर्ण ही श्रुत द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से रचित नहीं होने से अनादि निधन है । पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अनुवाद द्वार से रचित-कृतक होने से सादि सान्त भी है । श्रुत के कर्ता तीन हैं-मूलकर्ता, उत्तरकर्ता और उत्तरोत्तर कर्त्ता । उनमें अर्थ की अपेक्षा मूलकर्ता सर्वज्ञ वीतराग भगवान् अर्हन्त तीर्थ कर देव या सामान्य केवली. भगवान हैं । ग्रन्थ की अपेक्षा उत्तरकर्ता वीतराग अतिशय ज्ञान और ऋद्धियों से समन्वित गणधरदेव हैं। उत्तरोत्तर कर्ता आरातीय उनके शिष्य प्रशिष्यादि हैं । ये सर्व ही श्रुत प्रमाणभूत हैं, क्योंकि निर्दोष ज्ञानी द्वारा प्रकाशित हैं, तथा ये प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा बाधित भी नहीं हैं जैसे अन्य प्रमाण बाधित नहीं हैं।
परोक्ष प्रमाण रूप मति श्रुत ज्ञानों का निरूपण करके अब प्रत्यक्ष प्रमाण भूत अवधिज्ञान के कारण, लक्षण, स्वामी और स्वरूप का प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैं