SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमोऽध्यायः [ ४३ इवर्णः । तथा उवर्णः । तथा ऋवर्णः । तथा लवर्णः । तथा एकारोऽपि त्रिधा । तथा ऐकारः। तथा प्रोकारः । तथैव प्रौकारस्त्रिधेत्येवं सप्तविंशतिस्वरा भवन्ति । तथा अं अः क प इत्येवं योगवाहाश्चत्वारः । ककरादीनि हकारपर्यन्तानि त्रयस्त्रिशद्व्यञ्जनानि भवन्ति । एते समुदिताश्चतुःषष्टिवर्णा जायन्ते । विशेषतः पुनरेत एव द्विसंयोगजत्रिसंयोगजचतुःसंयोगजादिभेदेन सङ्ख्यातविकल्पाश्च भवन्ति। वर्णात्मकं पदं भवति । तत्रिविधं-मध्यमपदमर्थपदं प्रमाणपदं चेति । तत्र मध्यमपदेनाङ्गपूर्वाणां पदविभागः क्रियते । तस्यैकपदस्य वर्णसङ्ख्या षोडशशतानि चतुस्त्रिशत्कोट्यस्त्रयशीतिलक्षाणि सप्तसहस्राष्टाशीत्यधिकाष्टशतानि च (१६३४८३०७८८८) । सकलाङ्गप्रविष्टश्रुतपदसङ्ख्या कोटीशतमेकं द्वादशकोटयस्त्रयशीतिलक्षाण्यष्टपञ्चाशत्सहस्राणि पञ्चोत्तराणि (११२८३५८००५) । सकलाङ्गप्रविष्टश्रुतपदानां समुदितसर्ववर्णसङ्ख्या कोटीकोटीनामेकलक्षं चतुरशीतिसहस्रोपेतं सप्तषष्टयधिकचतुःशतान्वितं च तथा कोटीनां चतुश्चत्वारिंशल्लक्षाणि सप्तत्यधिकत्रि सप्ततिशतोपेतानि पञ्चनवतिलक्षाण्येकपञ्चाशत्सहस्राणि पञ्चदशोपेतानि षट्शतानि (१८४४६७४४०७३७०९५५१६१५) । अर्थपदं पुनरनियतवर्णात्मकं किमप्येकाक्षरं किमपि द्वयक्षरमपरं यक्षरादि च सर्वत्र व्यवह्रियते । प्रमाणपदं त्वष्टाक्षरम् । तेनाङ्गबाह्यश्रुतं विरच्यते । अङ्गबाह्यश्रुतवर्णरेकमपि पदं न पूर्यते । तद्वर्ण उत्कालिक कहलाते हैं । रूढ़ अंग प्रविष्ट बारह भेदवाला है। इसीको बताते हैंआचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृकथा, उपासकाध्ययन अन्तकृत् दशा, अनुत्तरोपपादिक दशा, प्रश्न व्याकरण, विपाक सूत्र और दृष्टिवाद, चौदह पूर्वादिका इन्हीं में [ दृष्टिवाद में ] अन्तर्भाव होता है । अब यहां पर सामान्य से श्रत में जो चौसठ वर्ण हैं उनका विवरण करते हैं । वह इसप्रकार है-'अवर्ण, ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के भेद से तीन प्रकार का है, इसीप्रकार इवर्ण, उवर्ण, ऋवर्ण, लवर्ण, एकार ऐकार, ओकार और औकार तीन तीन प्रकार के हैं, कुल मिलाकर ये स्वर सत्तावीस हो जाते हैं । तथा अं अः क प ये चार योगवाह हैं। ककार से लेकर हकार पर्यंत तेत्तीस व्यंजन होते हैं । ये सब मिलकर चौसठ वर्ण हो जाते हैं। विशेष रूप से ये ही द्विसंयोगज त्रिसंयोगज चतुःसंयोगज आदि भेद से संख्यात विकल्प रूप बन जाते हैं। वणात्मक पद होता है इसके तीन प्रकार हैं मध्यमपद, अर्थपद और प्रमाणपद। इनमें से मध्यम नाम के पद द्वारा अंग और पूर्व श्रुत के पदों का विभाग होता है, इस मध्यम पद की वर्ण संख्या सोलह सौ चौतीस करोड़ तिरासी लाख सात हजार आठसौ अठासी १६३४८३०७८८८ है । संपूर्ण अंग प्रविष्ट श्रुतों के पदों की संख्या एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख अठावन हजार पांच ११२८३५८००५ है। सकल अंग
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy