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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
श्रुतं मतिपूर्व द्वघनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमे सति श्रवणं श्रुतम् । नानार्थप्ररूपणसमर्थमस्पष्ट विज्ञानमेव रूढिवशादुच्यते । अनेन श्रुतस्य लक्षणमुक्तम् । श्रुतस्य प्रमाणत्वं पूरयति जनयतीति पूर्वं निमित्तं कारणमित्यनर्थान्तरम् । साक्षात्परम्परया वा मतिः पूर्वं यस्य तन्मतिपूर्व-मतिकारणकमित्यर्थः । निमित्तमात्रं चेदं मतिज्ञानं श्रुतस्योक्तम् । सत्यपि मतिज्ञाने बाह्यश्रुतज्ञाननिमित्तसन्निधानेऽपि प्रबलश्रुतज्ञानावरणोदयस्य पुसः श्रुताभावात् । श्रुतावरणक्षयोपशमस्तु प्रधानं कारणं तस्मिन् सत्येव श्रुतस्याविर्भावसद्भावात् । तच्चश्रुतं द्विभेदमङ्गबाह्याङ्गप्रविष्ट विकल्पात् । अङ्गबाह्यमनेकप्रभेदं-कालिकोत्कालिकादिविकल्पात् । तत्र कालशुद्धयादिनियमापेक्षं कालिकम् । तद्विपरीतलक्षणमुत्कालिकम् । रूढमङ्गप्रविष्ट द्वादशभेदम् । कथं ? प्राचारः सूत्रकृतं स्थानं समवायो व्याख्याप्रज्ञप्तितिकथोपासकाध्ययनमन्तकृद्दशमनुत्तरोपपादिकदशं प्रश्नव्याकरणं विपाकसूत्रं दृष्टिवाद इति पूर्वादीनामन्तर्भावात् । तत्र सामान्येन तावच्चतुःषष्टिवर्णाः श्रुते व्यवह्रियन्ते । तद्यथा-ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदेनावर्णस्त्रिविधः। तथा
__ मतिज्ञान का कथन पूर्ण हुआ। इस समय मतिज्ञान के अनंतर कहे हुए श्रुतज्ञान का लक्षण, कारण तथा भेद के निर्णय के लिये अग्रिम सूत्र अवतरित होता है
सत्रार्थ-श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है, उसके दो भेद तथा अनेक और बारह भेद हैं । श्रुत ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर श्रवण रूप श्रत है। जो अनेक अर्थों का प्ररूपण करने में समर्थ है ऐसा अस्पष्ट ज्ञान रूढिवश-शब्द की व्यत्पत्तिवश श्रवण श्रत कहलाता है यह श्रुत का लक्षण है । श्रत के प्रमाणत्व को पूरित करता है उत्पन्न करता है वह पूर्व है । पूर्व, निमित्त और कारण ये एकार्थवाची शब्द हैं, भाव यह है कि साक्षात् अथवा परंपरा से मति जिसके पूर्व में होता है वह मतिपूर्वक कहलाता है मति के कारण होता है यह अर्थ है। यह मतिज्ञान श्रुतज्ञान का निमित्त मात्र कहा है, क्योंकि मतिज्ञान के होने पर भी तथा श्रु तज्ञान के बाह्य निमित्तों का सन्निधान भी है किन्तु प्रबल श्रुत ज्ञानावरण का उदय जिसके है उस पुरुष के श्रु तज्ञान नहीं हो पाता । अतः श्रुत ज्ञानावरण का क्षयोपशम ही श्र तज्ञान का प्रधान कारण है, उसके होने पर ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। उस श्रुत के दो भेद हैं, अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट । अंग बाह्य अनेक प्रकार का है कालिक, उत्कालिकादि उसके भेद हैं । जो श्रुतकाल शुद्धि आदि पूर्वक पढ़ा जाता है वह कालिक है और इससे विपरीत अर्थात् जिसके पठन में कालादि शुद्धि का नियम नहीं है वे शास्त्र