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प्रथमोऽध्यायः
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कर्षकेण देहान्तर्गतमपि काण्डादिकमाकर्षति, भ्रामकेण च सूच्यादिकं भ्रमयतीति । किंच अप्राप्यकारि चक्षुः स्पष्टम् । यदि प्राप्यकारि स्यात् त्वगिन्द्रियवत्तदा स्पृष्टमञ्जनं गृह्णीयान्न च गृह्णाति । मनोवत्तस्मादप्राप्यकारीत्येवावसीयते । इयं युक्तिरुक्ता । तथास्यार्थस्यागमोऽप्यस्ति साधक:
पुट्ट सुगोदिस
पुट्ट परसदे तहा रूवं । गन्धं रसं च पासं पुट्टमपुट्ट वियागादि ॥ इति ॥
ततश्चक्षुर्मनसी वर्जयित्वा शेषेन्द्रियाणां व्यञ्जनस्यावग्रहः । सर्वेषामिन्द्रियाणामर्थावग्रहइति सिद्धम् । व्याख्यातं मतिज्ञानमिदानीं तदनन्तरोद्दिष्टश्रुतज्ञानलक्षरण कारणभेदप्रभेदनिर्ज्ञानार्थमाह
समाधान - यह कथन ठीक नहीं है, इस अनुमान का करणत्व हेतु मन्त्रादि से व्यभिचरित होता है, देखो ! मन्त्रादिक अप्राप्यकारी होने पर भी करण रूप होते हैं, जैसे मन्त्र द्वारा नाग आकर्षित किया जाता है, अथवा आकर्ष जाति के चुम्बक द्वारा शरीरादि के भीतर के काण्डादिक आकर्षित होते हैं तथा भ्रामक जाति के चुम्बक द्वारा सूई आदि को घुमाया जाता है, अर्थात् ये मन्त्र चुम्बक आदि पदार्थ अप्राप्यदूर रहकर ही विष दूर करना आदि कार्य के प्रति करण- कारण बनते देखे जाते हैं ठीक इसीप्रकार चक्षु और मन अप्राप्य होकर अपने विषय को ग्रहण करने में कारणभूत हैं ।
दूसरी बात यह है कि चक्षु स्पष्ट रूप से अप्राप्यकारी प्रतीत होता है, यदि प्राप्यकारी होता तो स्पर्शन इन्द्रिय के समान स्पर्शित अञ्जन को ग्रहण कर लेता ? किन्तु ग्रहण नहीं करता है । अतः मन के समान चक्षु भी अप्राप्यकारी सिद्ध होती है। यह तो युक्ति कही, आगम भी इसी अर्थ का समर्थन करता है, आगे इसी को बताते हैं
पुट्ट सुणोदिस अपुट्ट गंधं रसं च पासं पुट्टमपुट्ट
पस्सदे तहा रूवं । वियाणादि ॥ | १ ||
अर्थ – स्पर्शित शब्द को सुनता है, तथा अस्पर्शित रूप को देखता है, रस, गंध, और स्पर्श को स्पर्शित तथा अस्पर्शित दोनों को जानता है ।। १ ।। इसप्रकार युक्ति और आगम द्वारा चक्षु का अप्राप्यकारित्व सिद्ध होता है, इसलिये चक्षु और मन को छोड़कर शेष इन्द्रियों द्वारा व्यञ्जन - अव्यक्त का ग्रहण अर्थात् व्यंजनावग्रह होता है, और सर्व ही इन्द्रियों द्वारा अर्थवग्रह होता है यह बात सिद्ध हुई ।