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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
भवति स एव मुहुर्मुहुः सिच्यमानः शनैस्तिम्यति तथा श्रोत्रादिष्विन्द्रियेषु शब्दादिपरिणताः पुद्गला द्वित्रादिषु समयेषु गृह्यमाणा न व्यक्तीभवन्ति । पुनः पुनरवग्रहणे सति त एव व्यक्तीभवन्ति । अतो व्यक्तग्रहणात्पूर्वं व्यञ्जनावग्रहः । यत्पुनर्व्यक्तग्रहणं सोऽर्थावग्रहो भवति । तस्मादव्यक्तावग्रहादीहादयो न भवन्तीति सिद्धम् । सर्वैरिन्द्रियानिन्द्रियैरर्थस्येव व्यञ्जनस्यावग्रहे प्राप्तेऽनिष्टप्रतिषेधार्थ माह -
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ।। १६ ।।
चक्षुषाऽनिन्द्रियेण चाव्यक्तशब्दा दिजातस्य व्यञ्जनस्यावग्रहः परिच्छेदको न भवति तयोरप्राप्यकारित्वात् । चक्षुर्मनसी प्राप्यकारिणी करणत्वाद्दात्रादिवदिति चेन्न - मन्त्रादिना हेतोर्व्यभि - चारात् । मन्त्रादेरप्राप्यकारित्वेऽपि करणत्वदर्शनात् । यथा मन्त्रेण भुजङ्गममाकर्षति, चुम्बकेना
सकोरा गीला नहीं होता, वही सकोरा बार बार सींचा जाने पर धीरे धीरे गीला हो जाता है । उसीप्रकार कर्ण आदि इन्द्रियों में शब्दादि परिणत पुद्गल दो तीन आदि समयों में ग्रहण किये हुए व्यक्त नहीं हो पाते, बार बार ग्रहण करने पर वे ही व्यक्त हो जाते हैं, अतः व्यक्त ग्रहण के पहले व्यञ्जन अवग्रह होता है, पुनः जो व्यक्त रूप ग्रहण होता है वह अर्थावगृह कहलाता है, इससे सिद्ध होता है कि अव्यक्त अवग्रह के अनंतर ईहा आदिक नहीं होते [ क्योंकि पहले अव्यक्त अवग्रह फिर व्यक्त अवग्रह तदनंतर ईहादि इस क्रम से ज्ञान होता है इसमें अव्यक्त के अनंतर व्यक्त ग्रहण है पश्चात् ईहादि है इसलिये अव्यक्त अवगूह के बाद ईहादि नहीं होते । ]
जैसे अर्थ [ व्यक्त पदार्थ ] सभी इन्द्रिय और मन द्वारा गृहीत होता है वैसे व्यञ्जन का [ अव्यक्त का ] अवग्रह सभी इन्द्रियादि द्वारा होने का प्रसंग आने पर अनिष्ट का निषेध करने के लिये सूत्र कहते हैं—
सूत्रार्थ - व्यञ्जन अवगूह ज्ञान चक्षु और मन द्वारा नहीं होता ।
नेत्र और मन के द्वारा अव्यक्त शब्दादि रूप व्यञ्जन का अवगूह ज्ञान नहीं होता है, क्योंकि ये दोनों-नेत्र और मन अप्राप्यकारी हैं ।
शंका- चक्षु और मन प्राप्यकारी हैं, क्योंकि वह करणरूप हैं, जैसे दात्रा आदि करणरूप होते हैं ?