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________________ प्रथमोऽध्यायः [ ४५ भवप्रत्ययोवधिर्देवनारकाणाम् ।। २१ ।। श्रायुर्नामकर्मोदयनिमित्तो जीवस्योत्पद्यमानः पर्यायो भव इत्युच्यते । प्रत्ययः कारणं निमित्तं तुरित्यनर्थान्तरम् । भवः प्रत्ययो यस्यावधेरसौ भवप्रत्ययो भवकारणक इत्यर्थः । अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमे सत्यधोगतप्रचुरपुद् गलद्रव्यं धीयते व्यवस्थाप्यतेऽनेनेत्यवधिः । देवनारका वक्ष्यमाणलक्षणाः । सूत्रार्थ - भव के निमित्त से होने वाला अवधिज्ञान देव और नारकी जीवों के होता है । आयु कर्म के उदय के निमित्त से उत्पन्न होने वाली जीव की पर्याय को 'भव' कहते हैं । प्रत्यय, कारण, निमित्त और हेतु ये एकार्थ वाचक शब्द हैं । भव है निमित्त जिसमें उस अवधि को भव प्रत्यय कहते हैं । अवधि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर जो अधोगत - नीचे के पुद्गल द्रव्य को प्रचुरता से जानता है [ देवों की अपेक्षा ] वह अवधिज्ञान है । देव और नारकी का लक्षण आगे कहेंगे । उन देव और नारकी के भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है ऐसा सम्बन्ध करना । उन देव और • नारकी के भव का आश्रय लेकर अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है अतः भव ही प्रधान कारण है, उन जीवों के व्रत नियम आदि का अभाव है तो भी उक्त कारण से • अवधिज्ञान प्रगट होता है विशेष यह होता है कि सम्यग्दृष्टि के अवधिज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टि के विभंगज्ञान होता है, यद्यपि इन जीवों के भवरूप कारण समान है। तो भी क्षयोपशम का किसी के प्रकर्ष और किसी के अप्रकर्ष होने से अवधि और विभंग ज्ञान में प्रकर्ष अपकर्ष देखा जाता है, वह प्रकर्ष और अप्रकर्ष किन जीवों में कितना है यह बात आगम से जाननी चाहिये । विशेषार्थ - देव और नारकी के भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है उनमें किन देवादि के कितना क्षयोपशम वाला अवधिज्ञान होता है इसको कहते हैं, देवगति में भवनवासी और व्यन्तरों के अवधि का क्षेत्र जघन्य से पच्चीस योजन और काल कुछ कम एक दिन है । ज्योतिषी देवों के अवधि का क्षेत्र इससे संख्यात गुणा और काल इससे बहुत अधिक है । असुरकुमारों के अवधि का क्षेत्र उत्कृष्टता से असंख्यात कोटी योजन है । असुरों को छोड़कर बाकी के भवनवासी देव व्यन्तर तथा ज्योतिषी देव इन सभी का उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात हजार योजन है । असुरों में अवधि का उत्कृष्ट काल प्रमाण असंख्यात वर्ष है और नौ प्रकार के भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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