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________________ ३६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ तत्प्रतिपक्षस्यापि लब्धत्वात् स्तोक श्रोदनः स्तोकं घृतमित्येवमप्यवग्रहणं भवति । विधशब्दः प्रकारवाच । तेन बहुविध बहुप्रकार उच्यते । ततः शालिषाष्टिककंगुकोद्रवादिभेदाद्भिन्नजातीयौदनदर्शनादुत्तरकालं बहुप्रकार प्रोदन इत्यवगृह्यते । तथा गोमहिष्यादिजातिसम्बन्धिनानाधृतोपलम्भाद्बहुप्रका रं घृतमित्यवगृह्यते । सेतरग्रहरणादेकविधस्य संग्रहः । तेन नानाभाण्डगतशाल्योदन एकजातीय एकविध श्रोदन इत्येवमवगृह्यते । तथा बहुषु भाजनेषु स्थितमेकजातीयं गोघृतमेकविधमित्यवगृह्यते । स एव ह्वादिरर्थो यदा शीघ्र गृह्यते तदा क्षिप्रावग्रहो भवति । यदा तु चिरेण प्रतिपद्यते तदाऽक्षिप्रावग्रहः स्यात् । एकदेशदर्शनात्समस्तस्यार्थस्य ग्रहणमनिःसृतावग्रहः । यथा जलनिमग्नस्य हस्तिन एकदेशकरदर्शनादयं हस्तीति समस्तस्यार्थस्य ग्रहणम् । समस्ततदवयवदर्शनान्निःसृतावग्रहो भवति । अग्निमानयेति केनचिद्भरिणते कर्परादिना समानयेति परेणानुक्तस्य कर्परादेरग्नयानयनोपायस्य स्वयमूह बहु शब्द के संख्या और विपुल ऐसे दो अर्थ हैं, उनमें से जो संख्या वाचक है वह एक दो और बहुत इत्यादि रूप से प्रयुक्त होता है, तथा विपुलवाची जैसे बहुत भात है बहुत घी है इत्यादि रूप है इन दोनों अर्थों का भी ग्रहण संभव है कोई विशेषता नहीं है | कहे जाने वाले सेतर पद से उन बहु आदि के प्रतिपक्ष भूत पदार्थों का भी ग्रहण हो जाता है अतः थोड़ा भात है थोड़ा घी है इत्यादि रूप भी अवग्रहादि ज्ञान होता है ऐसा जानना । विध शब्द प्रकार वाची है इससे बहुविध अर्थात् बहुत प्रकार ऐसा अर्थ होता है । उससे शालि, साठी, कंगु [ वरिया चावल ] कोद्रव आदि के भेद से भिन्न भिन्न जाति के चांवलों के भातों को देखने से उत्तर काल में बहुत प्रकार का भात अवगृहीत होता है, इसीप्रकार गाय, भैंस आदि जाति के संबंध से नानाप्रकार का घी उपलब्ध होता है इसलिये बहुत प्रकार का घी है ऐसा अवग्रह ज्ञान होता है, भाव यह है कि घी आदि पदार्थों की नाना जातियाँ हैं अतः ज्ञान के विषय में भेद होने से इन अवग्रहादि ज्ञानों में भेद हो जाता है । सेतर शब्द से बहुविध से इतर एकविध का ग्रहण होता है, उससे नाना बर्तनों में स्थित शालि चांवल का भात एक ही जातीय होने से यह सब भात एक ही जातीय है ऐसा बोध होता है, इसीप्रकार बहुत से भाजनों में रखा हुआ एक जाति का गाय का घी एकविध कहलाता है । ये बहु आदि पदार्थ जब शीघ्रता से जाने जाते हैं तब क्षिप्र अवग्रह ज्ञान होता है, और जब इन पदार्थों को धीरे धीरे जाना जाता है तब अक्षिप्र अवग्रह ज्ञान होता है । वस्तु के एक देश को देखने पर पूर्ण देश का बोध होना अनिःसृत अवग्रह है, जैसे जल में डूबे हाथी के एक देश रूप सू ंड के देखने पर "यह हाथी है" ऐसा समस्त रूपेण ग्रहण होता है । समस्त अवयवों
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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