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________________ प्रथमोऽध्यायः [ ३७ नमनुक्तावग्रहः । तस्यैव परेणोक्तस्य कर्परादेब्रहणमुक्तावग्रहः । यथार्थग्रहणं ध्र वावग्रहः । तद्विपरीतलक्षणः पुनरध्र वावग्रहः । एवं बह्वादिषु लोकागमाविरोधेन तज्जैरीहादयोऽपि योज्याः । तत्र च बह्वाद्यवग्रहादयो मतिज्ञानावरणक्षयोपशमप्रकर्षात्प्रादुर्भवन्ति नेतरे एकैकविधा क्षिप्रनिःसृतोक्ताघ्र वावग्रहादयस्तेषां मन्दक्षयोपशमेन प्रभवात् । ध्र वावग्रहधारणयोः कथं विशेष इति चेदुच्यते-क्षयोपशमप्राप्तिकाले विशुद्धपरिणामसन्तत्या प्राप्तक्षयोपशमात्प्रथमसमये यथावग्रहस्तथैव द्वितीयादिष्वपि समयेषु न न्यूनो नाप्यधिक इति ध्र वावग्रह इत्युच्यते। यदा पुनर्विशुद्धपरिणामस्य संक्लेशपरिणामस्य च मिश्रणात्क्षयोपशमो भवति तत उत्पद्यमानोऽवग्रहः कदाचिद्बहूनां कदाचिदल्पस्य कदाचिद्बहुविधस्य कदाचिदेकविधस्य चेति हीनाधिकभावादध्र वावग्रह इत्युच्यते । धारणा पुनर्ग्रहीतार्थाविस्मरणकारणमिति महान् ध्र वावग्रहधारणयोर्भेदः । सहेतरैः प्रतिपक्षभूतैः षड्भिर्वर्तन्त इति सेतरा बह्वादयः तेषां बह्वादीनां सेतराणामर्थस्वरूपाणामिन्द्रियानिन्द्रियैः षड्भिः प्रत्येक ग्राहकत्वेनावग्रहादयः को देख लेने पर जो ज्ञान होता है वह निःसृत कहलाता है । “अग्नि को लाओ" ऐसा किसी के कहने पर अग्नि को खप्पर आदि में रखकर लाना ऐसा पर ने नहीं कहा है तो भी उस अनुक्त खप्पर आदि के अग्नि को लाने के उपाय का स्वयं विचार कर लेना अनुक्त अवग्रह ज्ञान है । और यदि इसप्रकार अग्नि के लाने का उपाय स्वयं नहीं सोच पाता है, पर के कहने पर ही उस उपाय को करता है वह 'उक्त' अवग्रह है। यथार्थ ग्रहण को ध्रुव अवग्रह कहते हैं इससे विपरीत-अयथार्थ ग्रहण अध्र व अवग्रह कहलाता है। जैसे अवग्रह ज्ञान के बहु आदि पदार्थों की अपेक्षा उदाहरण दिये हैं वैसे ईहा आदि में भी लोक और आगम में विरोध न आवे इसतरह से ईहा आदि के ज्ञाता पुरुषों को घटित कर लेना चाहिये । बहु, बहुविध, क्षिप्र आदि छह प्रकार के अवग्रह आदि ज्ञान मतिज्ञानावरण के उत्कृष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं किन्तु एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत उक्त और अध्रुव ये छह प्रकार के अवग्रह आदि ज्ञान मन्द-अल्प क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं । शंका-ध्रुव अवग्रह ज्ञान और धारणा ज्ञान में किसप्रकार विशेष भेद है ? समाधान-बतलाते हैं–क्षयोपशम की प्राप्ति के समय जो विशुद्ध परिणामों को संतति थी उस प्राप्त क्षयोपशम के समय में जैसा अवग्रह ज्ञान प्रगट हुआ था वह द्वितीय आदि आगामी समयों में वैसा ही बना रहना न कम होना और न अधिक होना यह ध्रुव अवग्रह ज्ञान कहलाता है । तथा जब विशुद्ध परिणाम और संक्लेश
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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