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________________ प्रथमोऽध्यायः [ ३५ दिविशेषवस्तुप्रतिभासः सविकल्पकोऽवग्रहो भवति यथेदं दृष्ट यद्वस्तु तच्छ् वेतमिति । तत एव सत्यपि परिच्छित्तिमात्राविशेषे दर्शनावग्रहयोनिर्विकल्पकत्वसविकल्पकत्वकृतो भेदः परिस्फुटः प्रतीयत इति । ततः श्वेतमिदं वस्तु किं बलाका पताका वेति संशयविच्छेदार्थमवगृहीतवस्तुगतविशेषाकांक्षणमात्मनः प्रयत्नविशेष ईहा । कुतश्चित्तद्गतोत्पतनपक्षविक्षेपादिविशेषविज्ञानाबलाकैवेयं न पताकेत्यवधारणं निश्चयोऽवायः । निश्चितस्य कालान्तराविस्मरणकारणं धारणा। यथा सैवेयं बलाका या पूर्वाह्न मया दृष्टा। तदेव मतिज्ञानमवग्रहेहावायधारणा भवति । अवग्रहेहावायधारणाभेदं स्यादित्यर्थः । केषां पुनः कर्मणामवग्रहादयः परिच्छित्तिविशेषाः स्युरित्याह बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्र वारणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥ बहुशब्दः सङ्ख्यावाची वैपुल्यवाची च सम्भवति । तत्र सङ्ख्यावाची एकद्विबहव इत्यत्र दृष्टः। वैपुल्यवाची यथा बहुरोदनो बहुघृतमिति । अत्र द्वयोरपि ग्रहणं विशेषाभावात् । वक्ष्यमाणसेतरग्रहणा रहित वस्तु की सत्तामात्र का अवभासन रूप निर्विकल्प दर्शन रूप प्रतीति उत्पन्न होती है तदनंतर अवग्रह होता है जैसे उसी दिन के जन्मे बालक के प्रथम बार नेत्र खोलने पर सफेद आदि विशेष वस्तु का प्रतिभास होता है वह सविकल्प अवग्रह स्वरूप है, तथा जैसे यह देखी गई जो वस्तु है. वह सफेद है । दर्शन और अवग्रह में परिच्छित्ति मात्र समान है तो भी निर्विकल्प और सविकल्पपने से भेद लक्षित होता ही है अर्थात् दर्शन निर्विकल्प है और अवग्रह सविकल्प है। अवग्रह के अनंतर यह सफेद वस्तु बलाका है या पताका इत्यादि रूप से संशय विच्छेद के लिये अवग्रह द्वारा ज्ञात वस्तु में विशेष जानने की कांक्षा रूप आत्मा का प्रयत्न विशेष ईहा, कहलाती है। उस बलाका में होने वाला ऊपर उड़ना, पंख फैलाना आदि के विशेष ज्ञान से यह बलाका ही है, पताका नहीं इसतरह निर्णय होना अवाय ज्ञान है। निर्णीत वस्तु में कालान्तर में स्मरण होने का जो कारण है वह धारणा ज्ञान है, जैसे वही यह बलाका है जिसको मैंने प्रातः देखा था। इसतरह मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप होता है अर्थात् मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ऐसे चार भेद स्वरूप है। अवग्रह आदि ज्ञान किन पदार्थों को विषय करते हैं ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं सूत्रार्थ-बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और अध्र व तथा इनसे इतर एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त और ध्र व ये अवग्रहादि ज्ञानों के विषय हैं।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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