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प्रथमोऽध्यायः
[ ३३ रित्यर्थः । संज्ञानं संज्ञा । तदेवेदमित्यतीतवर्तमानाकारद्वयावभासकं प्रत्यभिज्ञानमुच्यते । चिन्तनं चिन्ता। देशान्तरे कालान्तरे च यावान् कश्चिद्धूमः स सर्वोप्यग्निजन्माऽनग्निजन्मा वा न भवतीति व्याप्तिग्रहणमूहाख्यं सम्यग्ज्ञानं कथ्यते । लिङ्गाभिमुखस्य नियतस्य लिङ्गिनो बोधनं परिज्ञानमभिनिबोधः स्वार्थानुमानभण्यते । बहिश्शब्दोच्चारणपूर्वकं परार्थानुमानं तु श्रुतेऽन्तर्भवति । इति शब्दः प्रकारार्थः । आद्यर्थो वा । तेनैवं प्रकारा एवमादिर्वा या प्रतीतिः सा सर्वा संगृहीता भवति । सा च प्रतिभा बुद्धिमेधाप्रज्ञादिः । प्रकारार्थश्चात्र मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्तत्वम् । अनर्थान्तरमर्थस्याभेदः । ततो मतिज्ञानसामान्यादेशादनन्तरत्वे सति मतिज्ञानपर्यायशब्दाः स्मृत्यादयो वेदितव्याः । यथा शचीपतेर्देवेन्द्रार्थस्य वाचकाः शक्रन्द्रपुरन्दरादयः शब्दाः । सत्यपि कथंचिद्वय त्पत्त्यार्थभेदे पर्यायशब्दा रूढा लोके प्रतीयन्ते । किंनिमित्तं मतिज्ञानं जायत इत्याह
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥ तदित्यनेन मत्यादिप्रकारैकज्ञानस्य परामर्शः । इन्द्रस्यात्मनः कर्ममलीमसस्य सूक्ष्मस्य च लिङ्गमर्थोपलम्भे सहकारिकारणं ज्ञायकं वा यत्तदिन्द्रियम् । इन्द्रेण नामकर्मणा वा जन्यमिन्द्रियम् ।
वाला ऊहा नाम का सम्यग्ज्ञान संज्ञा कहलाता है । लिंग के अभिमुख नियत लिंगी का बोध अभिनिबोध कहलाता है अर्थात् स्वार्थानुमान को अभिनिबोध कहते हैं । शब्द के उच्चारण पूर्वक होने वाला बाह्यरूप परार्थानुमान ज्ञान का श्रृ तज्ञान में अन्तर्भाव होता है अर्थात् स्वार्थानुमान मतिज्ञान स्वरूप है और परार्थानुमान श्रुतज्ञान स्वरूप है। इति शब्द प्रकार वाची है अथवा आद्य वाचक है, इस इति शब्द से इसप्रकार की जो प्रतीति है वह सर्व ही मति में संगृहीत होती है । वह प्रतिभा, मेधा, बुद्धि प्रज्ञा आदि ज्ञान रूप है, इन सबका मतिज्ञान में अन्तर्भाव होता है । ये सब प्रकार मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होते हैं अनर्थान्तर अथात् अर्थ में भेद नहीं होना । अतः मतिज्ञान सामान्य को अपेक्षा अभेद होने से स्मृति आदि मतिज्ञान के पर्याय वाचक शब्द हैं ऐसा जानना चाहिये । जैसे शचीपति देवेन्द्र अर्थ के वाचक शक्र, इन्द्र, पुरन्दर आदि शब्द होते हैं। इनमें कथंचित् व्युत्पत्ति निमित्तक भेद हैं फिर भी लोक में पर्याय वाचक शब्द प्रचलित रहते ही हैं ।
किस निमित्त से मतिज्ञान उत्पन्न होता है इस बात को अग्रिम सूत्र में कहते हैं
सूत्रार्थ-वह मतिज्ञान इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है। तत् शब्द से मत्यादि एक प्रकार के ज्ञान का ग्रहण होता है। इन्द्र आत्मा को कहते हैं। सूक्ष्म