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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥ अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा । तमेवात्मानं प्रत्याश्रितं सम्यग्ज्ञानमिन्द्रियानिन्द्रियाद्यनपेक्षं प्रत्यक्षमिति व्यपदिश्यते । अन्यदवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानत्रितयमित्यर्थः । मतिश्रताभ्यामवशिष्टमवध्यादिसंवेदनत्रितयं वैशद्यप्रकर्षयोगान्मुख्यं प्रत्यक्षमिति संलक्ष्यते । तच्च सकलविकलविकल्पाद्वधा । सकलप्रत्यक्षं । केवलज्ञानम् । विकलप्रत्यक्षमवधिमनःपर्ययज्ञानद्वितयम् । मतिज्ञानान्तर्भूततद्भदस्मृत्यादिप्रतिपादनार्थमुच्यते
मतिः स्मतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम् ॥ १३ ॥ ....... अन्तर्बहिश्च परिस्फुटं मन्यते यया सा मतिः । व्यवहारप्रत्यक्षं स्वसंवेदनमिन्द्रियज्ञानं च प्रोच्यते । स्मर्यते यया सा स्मृतिः । स्मरणमात्रं वा स्मृतिः । तदित्यतीताकारावभासिनी प्रतीति
प्रत्यक्ष का स्वरूप कहते हैं
सूत्रार्थ-शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । “अक्ष्णोति" इति अक्ष आत्मा" जो व्याप्त होता है अर्थात् जानता है वह अक्ष आत्मा है, उस आत्मा के ही जो अश्रित है, इन्द्रिय और मन आदि अपेक्षा रहित है वह सम्यग्ज्ञान प्रत्यक्ष है। अन्यत् शब्द से अवधि मनःपर्यय और केवल इन तीन ज्ञानों को ग्रहण किया है । मति और श्रुत से जो अवशिष्ट अवधि आदि तीन ज्ञान हैं वे उत्कृष्ट निर्मल होने से मुख्य प्रत्यक्ष हैं । उस प्रत्यक्ष के सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष ऐसे दो भेद हैं। केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। अवधि और मनःपर्यय विकल प्रत्यक्ष हैं ।
मतिज्ञान के अन्तर्गत जो स्मृति आदि हैं उनका प्रतिपादन करते हैं
सूत्रार्थ-मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये सब एकार्थवाची हैं। अन्तः और बाह्य को स्फुट रूप माना-जाना जाय जिसके द्वारा उसे मति कहते हैं इससे व्यवहार प्रत्यक्ष स्वसंवेदन ज्ञान और इन्द्रिय ज्ञान लेते हैं । जिसके द्वारा, स्मरण हो वह स्मृति है अथवा स्मरण मात्र स्मृति है "वह" इसतरह अतीत आकार अवभासिनी प्रतीति स्मति है ऐसा जानना चाहिये । संज्ञान संज्ञा है वही यह है इसप्रकार अतीत और वर्तमान ऐसे दो आकारों का अवभासनरूप प्रत्यभिज्ञान संज्ञा है। चिन्तन चिन्ता है, देशान्तर और कालान्तर में स्थित जो कोई भी धूम है वह सब ही अग्नि से उत्पन्न होता है बिना अग्नि के नहीं होता, इसप्रकार व्याप्ति का ग्रहण करने