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________________ प्रथमोऽध्यायः [ ३१ सम्भवं योजनीयम् । यदेव मत्यादिचेतनं स्वार्थव्यवसायात्मकं सम्यग्ज्ञानं तदेव प्रमाणं भवति। तद्विपरीतस्य सन्निकर्षादेः प्रमाणत्वायोगाद्घटादिवत् । द्रव्येन्द्रियप्रदीपालोकादीनामप्युपचारात्प्रामाण्याभ्युपगमात् । द्विवचननिर्देशाद्वे एव प्रमाणे-परोक्षं प्रत्यक्षं. चेति, शेषानुमानोपमादीनामत्रैवान्तर्भावात् । तत्र परोक्षप्रतिपादनार्थमाह प्राये. परोक्षम् ॥ ११ ॥ द्विवचनसामर्थ्यादाद्यमतिसमीपं श्रुतमप्याद्यमित्युपचर्यते । आद्ये मतिश्रुते इत्यर्थः । पराण्यात्मनोपात्तानीन्द्रियमनांसि, अनुपात्तानि प्रदीपाद्यालोकपरोपदेशादीनि च प्रोच्यन्ते । तदपेक्षं सम्यग्ज्ञानं परोक्षं विशिष्ट वैशद्याभावात्संव्यवहारानपेक्षया सूत्रक्रममपेक्ष्याद्ये मतिश्रुते परोक्षं प्रमाणं भवति । संव्यवहारापेक्षया तु देशतो वैशद्यसम्भवात्स्वसंवेदनमिन्द्रियज्ञानं च प्रत्यक्षमिति चाख्यायते । प्रत्यक्षस्वरूपनिरूपणायाह प्रमाण शब्द स्वातन्त्र्य विवक्षा में कर्तृ साधन बनता है, परतन्त्र विवक्षा में करणादि साधनरूप है, जैसे यहाँ प्रमाण शब्द की निरुक्ति में विवक्षा कही है वैसे अन्यत्र भी यथासंभव लगना चाहिये । जो चेतन स्वरूप है, स्व-पर का निश्चायक है एवं मति आदि सम्यग्ज्ञान स्वरूप है वही प्रमाण कहलाता है, इससे विपरीत. जो सन्निकर्ष आदि हैं वे प्रमाण नहीं हैं क्योंकि वे घट आदि. के समान अचेतन स्वरूप हैं। स्पर्शनादि द्रव्येन्द्रियाँ, दीपक, प्रकाश आदि को तो उपचार मात्र से प्रामाण्य है। सूत्र में "प्रमाणे" ऐसा द्विवचन प्रयोग है इससे प्रमाण दो ही. प्रकार का है ऐसा नियम बनता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही प्रमाण हैं। शेष अनुमान उपमा आदि इन्हीं दो प्रमाणों में अन्तर्भूत हैं। परोक्ष प्रमाण का प्रतिपादन करते हैं। सूत्रार्थ-आदि के दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। सूत्रस्थ द्विवचन के सामर्थ्य से आदि के मतिज्ञान के समीप होने से श्रुत को भी उपचार से आध शब्द से कहा है। आये अर्थात् मति-श्रु तज्ञान । आत्मा द्वारा उपात्त इन्द्रिय और मन को 'पर' शब्द से कहा जाता है, तथा अनुपात्त स्वरूप दीपक, प्रकाश, परोपदेश आदि को भी "पर" कहते हैं, उनकी अपेक्षा लेकर जो सम्यग्ज्ञान होता है वह परोक्ष है। इस ज्ञान में विशिष्ट निर्मलता नहीं हैं। यहां पर संव्यवहार से प्रत्यक्ष कहने की अपेक्षा [विवक्षा] नहीं है । सूत्रक्रम की अपेक्षा आदि के मतिज्ञान श्रुतज्ञान परोक्ष होते हैं। संव्यवहार को अपेक्षा एकदेश वैशद्य होने से स्वसंवेदनज्ञान और इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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