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________________ ३० ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ तस्यापेक्षामात्रत्वाद्यथाऽभ्र े चन्द्रमसंपश्येत्यत्रा भ्रस्यापेक्षामात्रत्वम् । यन्निमित्तमर्थिनः केवन्ते सेवन्ते बाह्यमाभ्यन्तरं च तपः कुर्वन्ति तत्केवलम् । अथवा यदसहायं सकलावररणक्षयोद्भूतं ज्ञानं तत्केवलमित्याख्यायते । तानि मत्यादीनि पञ्च प्रत्येकं सम्यगधिकारात्सम्यग्ज्ञानव्यपदेशानि भवन्ति । ज्ञानस्यैव प्रामाण्यख्यापनार्थं प्रमाणस्वरूपसंख्याविप्रतिपत्तिनिराकरणार्थं चाह तत्प्रमाणे ।। १० । तदित्यनेन सम्यग्ज्ञानस्य परामर्श: । प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् । स्वातन्त्रयविवक्षया कर्तृ साधनत्वम् । पारतन्त्रयविवक्षया करणादिसाधनत्वं यथात्र तथान्यत्रापि यथा यह मति शब्द की निरुक्ति है । अथवा मनन मात्र मति है । निरूपण किया हुआ जो सुना जाता है, जाना जाता है, जिसके द्वारा वह श्रुत है, सुनता है, जानता है वह श्रुत है अथवा श्रवण मात्र श्रुत है । " अवाग् धीयते इति अवधिः" जो पुद्गल द्रव्य को विषय करता है, प्रचुरता से नीचे की ओर जानता है अथवा मर्यादित विषयवाला है उस ज्ञान विशेष को अवधि कहते हैं । पर के मन में स्थित पदार्थ को साहचर्य के कारण मन कहते हैं उसको पर्ययण अर्थात् सब ओर से जानना मन:पर्यय है, उसमें ज्ञानपने की सिद्धि में मन की प्रधानता नहीं है, केवल अपेक्षा मात्र है, जैसे किसी ने कहा कि आकाश में चन्द्रमा देखो, इसमें देखने रूप क्रिया में आकाश की अपेक्षा मात्र है, अभिप्राय यह है कि मन:पर्यय ज्ञान मन में स्थित पदार्थ को जानता है, उस जानन क्रिया में मन की सहायता नहीं लेता, मनः पर्यय ज्ञान के विषय का मन केवल आधार मात्र है । जैसे चन्द्रमा का आधार आकाश है । जिसके लिये अर्थीजन सेवन करते हैं बाह्याभ्यन्तर तप करते हैं वह केवलज्ञान है, अथवा जो असहाय है सकल आवरण कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है वह केवलज्ञान है । सम्यग् शब्द का अधिकार होने से ये पांचों ही मति आदि सम्यग्ज्ञान स्वरूप हैं । अब आगे ज्ञान ही प्रमाण है इस बात को बतलाने के लिये तथा प्रमाण के स्वरूप तथा संख्या संबंधी विवाद दूर करने के लिये सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ -मति आदि वे पांचों ज्ञान प्रमाण हैं । सूत्र में तत् शब्द सम्यग्ज्ञान का सूचक है, "प्रमिणोति प्रमीयतेऽनेन प्रमिति मात्रं वा प्रमाणम्" जानता है इसके द्वारा जाना जाता है अथवा जाननामात्र प्रमाण है [ यह प्रमाण शब्द की निरुक्ति है ]
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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