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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती वर्तमानस्य कुतश्चित्कारणान्मध्ये विरहकालोऽन्तरम् । औपशमिकादिर्भावः। सङ्ख्याताद्यन्यतमनिश्चयोप्यर्थानां परस्परविशेषप्रतिपत्तिनिमित्तमल्पबहुत्वम् । एतैश्च सम्यग्दर्शनादिजीवादीनामधिगमो भवतीति वेदितव्यम् । ननु च सत्येवास्तित्वेऽर्थानां निर्देशो घटत इति निर्देशादेव सद्ग्रहणं सिद्धम् । विधानग्रहणात्सङ्ख्या लब्धा । अधिकरणग्रहणात् क्षेत्रस्पर्शनयोर्ग्रहणम् । स्थितिग्रहणात्कालस्यावगमः । भावस्तु नामादिनिक्षेपे उपात्त एव । अन्तराल्पबहुत्वयोरपि पूर्वसूत्र एवोपादानं कर्तव्यम् । तस्मात्पृथक्सूत्रेण सदादीनां पुनरुपादानमनर्थकं स्यादिति । सत्यं विस्तररुचिप्रतिपाद्याशयाऽपेक्षयेत्युक्तमेव प्राक् । प्रतिपाद्या हि केचित्संक्षेपेण केचिद्विस्तरेणाऽपरे नातिसंक्षेपेण नातिविस्तरेण किंतु मध्यमप्रतिपत्त्या प्रतिपाद्या भवन्ति । तस्मात्संक्षेपरुचिमध्यमरुचिविस्तररुचिशिष्यप्रतिपादनार्थ क्रमेण सूत्रत्रयं कृतमिति बोद्धव्यम् । अन्यथा हि यदि तीक्षणमतयः संक्षेपरुचय एव प्रतिपाद्याः स्युस्तदा प्रमाण
परमार्थकाल और व्यवहारकाल ऐसे दो भेद हैं । सन्तानरूप से वर्तमान सम्यग्दर्शन आदि किसी गुण का किसी कारणवश बीच में बिरह काल होना अन्तर है [ अर्थात् सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति हुई अन्तर्मुहूर्त आदि काल के बाद वह छूट गया पुनः कभी अपने योग्य समय में प्राप्त हुआ इसके बीच में सम्यक्त्व का जो विरह-अभाव हो गया उसे 'अन्तर' कहते हैं ऐसा किसी भी गुण पर्याय में घटित करना अन्तर अनुयोग द्वार है । औपशमिक आदि "भाव" है । संख्यात् आदि द्वारा पदार्थों की परस्पर की विशेषता जानने के लिये कथन करना “अल्पबहुत्व" अनुयोग है । इन आठ अनुयोगों द्वारा भी सम्यग्दर्शन आदि का तथा जीवादि का अधिगम होता है।
शंका-पदार्थों का अस्तित्व होने पर ही निर्देश घटित होता है इसलिये निर्देश के ग्रहण से ही सद् का ग्रहण हो जाता है, इसीप्रकार विधान के ग्रहण से संख्या आ जाती है, अधिकरण के कथन से क्षेत्र और स्पर्शन का ग्रहण होता है, स्थिति के ग्रहण से काल का अवगम सिद्ध है । नामादि निक्षेपों में भाव आ चुका है, रही बात अन्तर और अल्पबहुत्व की सो इन दोनों को पूर्व के सूत्र में ही ले लेना चाहिये । इसप्रकार सद् आदि वाला यह आठवां सूत्र पृथक् रूप से ग्रहण करना व्यर्थ ठहरता है ?
समाधान-यह कथन सत्य है किन्तु हमने इसका उत्तर पहले ही दिया है कि विस्तर रुचि शिष्यों के आशय के अनुसार इस सूत्र का अवतार हुआ है। क्योंकि कोई शिष्य वर्ग संक्षेप से समझाने योग्य होते हैं तथा कोई विस्तार से समझाने योग्य होते हैं और कोई न अति संक्षेप से न अति विस्तार से किन्तु मध्यम रूप से समझाने