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प्रथमोऽध्यायः विषयाः श्रु तज्ञानविशेषाः प्रमाणात्मकाः । तदेकदेशविषया नयविशेषात्मकाः । तैश्च निर्देशादिभिस्तस्वार्थाधिगमो भवति । विस्तररुचिप्रतिपाद्याशयापेक्षयाऽधिगमोपायमुपलक्षयति
सत्सङ्खयाक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥८॥ यत्सकलपदार्थाधिगममूलं जीवादिद्रव्यं मिथ्यादर्शनादिगुणास्तित्वसामान्यविशेषविषयं श्रतज्ञाननिमित्तं सदित्यभिधानं तत्सकलादेशत्वादनुमन्यते । अथवा संग्रहव्यवहारनिमित्तविकलादेशत्वात्सदित्याख्यायते । भेदगणना सङ्ख्या । वर्तमाननिवाससामान्य क्षेत्रम् । तदेव त्रिकालविषयं स्पर्शनम् । वर्तनादिलक्षणः कालः । स च परमार्थव्यवहारविकल्पाद्वधा । कस्यचित्सम्यग्दर्शनादेर्गुणस्य सन्तानेन
यहां पर जैसे सम्यग्दर्शन और जीवतत्त्व में निर्देशादि घटित किये हैं वैसे ज्ञान, चारित्र तथा अजीवादि में भी घटित कर लेना चाहिये ।
ये निर्देशादि छह अनुयोग संपूर्ण रूप से वस्तु को विषय करते हैं तो श्र तज्ञान रूप प्रमाणात्मक बन जाते हैं और यदि उस वस्तु के एकदेश को विषय करते हैं तो नयात्मक बनते हैं । इसप्रकार उन निर्देश आदि के द्वारा तत्त्वार्थों का ज्ञान होता है।
अब विस्तर रुचि शिष्य के अभिप्रायानुसार अधिगम का उपाय बतलाते हैं
सूत्रार्थ-सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगों द्वारा भी उन जीवादि तत्त्वों का अवबोध होता है।
जो सकल पदार्थों के अधिगम का मूल है, मिथ्यादर्शनादि गुणों के अस्तित्व वाले सामान्य विशेषात्मक जीवादि द्रव्यों को विषय करता है, श्रुतज्ञान का निमित्त है वह सत् है [ अर्थात् संपूर्ण वस्तु के सत्-अस्तित्व का ग्राहक महासत्ता रूप सत् है ] यह सकलादेशी सत् है । अथवा संग्रह के व्यवहार का निमित्त होने से विकलादेशी रूप सत् है [ यह सत् वस्तु के अवान्तर सत्ता ग्राहक स्वरूप है ] अभिप्राय यह है कि 'सत्' ऐसा कहने से संपूर्ण वस्तुओं का अस्तित्व ग्रहण होता है अतः यह सकलादेशी महासत्ता ग्राहक है । जीव द्रव्य है इत्यादि रूप सत् एक वस्तु के अस्तित्व का सूचक होने से विकलादेशी अवान्तर सत्ता ग्राहक 'सत्' है । इसतरह यह 'सत्' अनुयोग है। भेदों की गणना को संख्या कहते हैं। वर्तमान के निवास सामान्य को 'क्षेत्र' कहते हैं । त्रिकाल के निवास क्षेत्र को 'स्पर्शन' कहते हैं, वर्तनादि लक्षणवाला काल है, उसके