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________________ २६ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ सम्यग्दर्शनं स्वात्मनो जीव इति वाधिपतित्वकथनं स्वामित्वम् । केन साध्यते सम्यग्दर्शनंजीवो वेति प्रश्ने अन्तरङ्गबहिरङ्गतत्साधकतमत्वख्यापनं साधनं । क्व सम्यग्दर्शनं क्व जीव इति वा प्रश्ने जीवे सम्यग्दर्शनम् । निश्चयात्स्वात्मनि जीवो व्यवहाराल्लोके शरीरे वा तिष्ठतीत्याधारप्रकाशनमधिकरणम् । सम्यग्दर्शनस्य जीवस्य वा कियान् काल इति प्रश्नेऽन्तर्मुहूर्तादिसाद्यपर्यवसानानन्तकालकृतावस्थानिरूपणमनादिनिधनादिकाल स्वरूपकथनं वा स्थितिः । कतिविधं सम्यग्दर्शनं कति प्रकारो इति वा प्रश्ने एकद्वित्रयादिसङ् ख्येयासङ ख्येयानन्तभेदकथनं विधानम् । प्रवृत्तिः फलं चेत्यपरमप्यनुयोगद्वयं कैश्चिदत्रोक्तम् । तत्र प्रवृत्तिरुत्पादव्यय ध्रौव्यवृत्तिरुच्यते । फलन्त्वाजवञ्जवीभावःसंसार इत्यर्थः । एवं ज्ञानचारित्राजीवादिष्वप्युदाहार्यन्त इमे निर्देशादयः । सकलनिर्दिश्यमानादिवस्तु सम्यग्दर्शन का स्वामी जीव है, जीव का स्वामी खुद जीव ही है इसतरह आधिपत्य बतलाना स्वामित्व कहलाता है । सम्यग्दर्शन या जीव किसके द्वारा साध्य है ऐसा प्रश्न आने पर इनके अन्तरंग और बहिरंग रूप साधकतम कारण बतलाना 'साधन' हैं । सम्यग्दर्शन कहां पर है, अथवा जीव कहाँ पर ऐसा प्रश्न उठने पर जीव में सम्यग्दर्शन रहता है । निश्चय की अपेक्षा जीव अपने में रहता है और व्यवहार की दृष्टि से लोक में या शरीर में रहता है इसतरह आधार का कथन अधिकरण समझना चाहिये । सम्यग्दर्शन का या जीव का कितना काल है ऐसा प्रश्न होने पर अन्तर्मुहूर्त से लेकर सादि अनन्त रूप सम्यग्दर्शन का काल हैं [ उपशम सम्यक्त्व का काल जघन्य तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त, क्षयोपशम सम्यक्त्व का काल अन्तर्मुहूर्त जघन्य व छयासठ सागर उत्कृष्ट काल है । क्षायिक सम्यक्त्व का काल सादि अनन्त है ] जीव का काल अनंत है अर्थात् जीव सदा ही रहता है इत्यादि रूप वस्तु के कालकृत अवस्था का निरूपण " स्थिति" कहलाती है । अथवा अनादि निधन स्वरूप जो कालद्रव्य है उसका कथन करना 'स्थिति' है । सम्यग्दर्शन कितने प्रकार का है, जीव कितने प्रकार का है ऐसा प्रश्न होने पर एक दो तीन आदि रूप संख्यात असंख्यात और अनन्त भेदों का कथन 'विधान'. है । इस तरह निर्देश, स्वामित्व आदि ये छह अनुयोग हैं । कोई इनमें प्रवृत्ति और फल ऐसे दो अनुयोग और भी मानते हैं तथा प्रवृत्ति और फल का लक्षण इसप्रकार करते हैं— उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप वृत्ति 'प्रवृत्ति' कहलाती है, संसरण भाव 'फल' है ।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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