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प्रथमोऽध्यायः
[ २३ दुपयुक्तश्रुविकल्पाधिरूढो विवक्षितः पुरुष पागमभावस्तबहिर्भूतो वर्तमानपर्यायाविष्टो नो आगमभावस्ततोऽन्यत्वात् । तच्छब्देन सम्यग्दर्शनादिजीवादयः परामृश्यन्ते । न्यासो निक्षेपः प्ररूपणेत्येकोऽर्थः तेषां सम्यग्दर्शनादिजीवादीनां न्यासो लोकसमयाविरोधेन यथोदाहरणं योजनीयः । ते च ज्ञानादिजीवादयः श्रद्धानविषया नामादिभिनिक्षिप्ताः सम्यगधिकारात्परमार्थसन्तः सुनिश्चितासम्भवबाधकप्रमाणत्वात् संवेदनमात्रवदित्यलं प्रसङ्गन। अधिगमजसद्दर्शनोत्पत्तिहेतुतत्त्वार्थाधिगमोपायप्रदर्शनार्थमाह
संभव नहीं है । अभिप्राय यह है कि तद् व्यतिरिक्त नाम का भेद ज्ञायक शरीर रूप भी नहीं है और भावी नो आगम द्रव्य रूप भी नहीं है यह तो उन दोनों से अतिरिक्त अन्य ही है। वर्तमान में उस परिणामरूप द्रव्य को ही भाव निक्षेप कहते हैं उसके भी आगम और नो आगम ऐसे दो भेद हैं । जीव शास्त्र का ज्ञाता एवं उस श्रुत विकल्प से युक्त आत्मा अर्थात् वर्तमान में जीव संबंधी शास्त्र के ज्ञान में जिसका उपयोग लगा हुआ है ऐसे पुरुष को आगम भाव कहते हैं। उससे पृथक् रूप वर्तमान [ जीवन पर्याय से सहित ] पर्याय युक्त को नो आगम भाव कहते हैं। यह आगम भाव से भिन्नरूप है।
सूत्र में तत् शब्द आया है उस तत् शब्द से सम्यक्त्वादि तथा जीवादि सात तत्त्वों का ग्रहण होता है । न्यास, निक्षेप और प्ररूपणा ये तीनों एकार्थवाची हैं। उन सम्यक्त्व आदि का तथा जीवादि का जो न्यास-निक्षेप है वह लोक और आगम में विरोध न हो इस रूपसे करना चाहिये तथा उदाहरण युक्त घटित कर लेना चाहिये । श्रद्धान के विषयभूत ज्ञानादि एवं जीवादि तत्त्व हैं वे नामादि से प्रतिपादित होते हैं सम्यग्पने का अधिकार होने से ये तत्त्व परमार्थभूत हैं, क्योंकि इनमें सुनिश्चित रूप से प्रमाण द्वारा कोई बाधा नहीं आती है, जैसे कि अपने संवेदन मात्र में सुनिश्चित रूप से कोई बाधक प्रमाण नहीं है। अब इस विषय को समाप्त करते हैं ।
[ निक्षेपों का चार्ट पृष्ठ २४ पर देखें ]