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________________ १८ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती तनिसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ यद्यपि प्रकृतत्वान्मोक्षमार्गोऽत्र प्रधानस्तथापि तच्छब्दोपादानसामर्थ्येन सम्यग्दर्शनस्य परामर्शः । निसर्गः स्वभावः । जीवाद्यर्थस्वरूपावधारणमधिगमः । तत्सम्यग्दर्शनं निसर्गादधिगमाद्वा समुत्पद्यत इति समुदायार्थः । सर्वथाप्यनवबुद्धजीवाद्यर्थस्वरूपस्य पुसः श्रद्धानाभावाद्यद्यपि निसर्गजेप्याधिगमः कियानस्ति तथा यथासम्भवं दर्शनमोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वान्तरङ्गो हेतुरप्युभयसम्यक्त्वसाधारणत्वादस्ति, तथापि परोपदेशमन्तरेण यज्जायते तन्निसर्गजमित्याख्यायते । यत्पुनः परोपदेशपूर्वकजीवाद्यर्थनिश्चयादाविर्भवति तदधिगमजमित्यनयोरयं भेदः । दर्शनस्य विषयत्वेनोपक्षिप्तजीवादितत्त्वप्रतिपादनायाह अभिव्यक्त करते हैं । आस्तिक्य गुण के अभाव में मिथ्यादृष्टियों में भी प्रशमादि तीन गुण देखे जाते हैं, किन्तु आस्तिक्य ऐसा विशिष्ट गुण है कि वह अकेला भी सम्यक्त्व के अभिव्यक्ति का कारण है। अब इस विषय में अधिक नहीं कहते हैं। अब यहां पर सम्यग्दर्शन के उत्पत्ति के दो हेतुओं को सूचित करने के लिये अग्रिम सूत्र कहते हैं सूत्रार्थ-वह सम्यक्त्व निसर्ग से अथवा अधिगम से उत्पन्न होता है। यहां पर यद्यपि मोक्षमार्ग प्रकृत होने से प्रधान है तो भी सूत्र में तत् शब्द का ग्रहण होने से सम्यग्दर्शन ही लिया जाता है । स्वभाव को निसर्ग कहते हैं। जीवादि पदार्थों का अवधारण [निश्चय या जानना] अधिगम कहलाता है । वह सम्यग्दर्शन निसर्ग से अथवा अधिगम से उत्पन्न होता है इसप्रकार समुदाय अर्थ जानना चाहिये । निसर्गज सम्यक्त्व में भी जीवादि पदार्थों का बोध पाया जाता है क्योंकि उक्त पदार्थों को जाने विना जीव के श्रद्धान नहीं हो सकता, तथा निसर्गज और अधिगमज सम्यक्त्व में दर्शन मोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूप अन्तरंग कारण भी समान है, फिर जो पर के उपदेश बिना होता है वह निसर्गज सम्यक्त्व कहलाता है और जो परोपदेश पूर्वक जीवादि पदार्थों के निश्चय से उत्पन्न होता है वह अधिगमज सम्यक्त्व कहलाता है इसप्रकार इन दो में यह भेद है।
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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